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७. कृपण
उदार चेता दानेश्वरी नवकार ! उफ् ! न जाने कितने लम्बे अंतराल के पश्चात मैं तुम्हारे द्वार पर भिक्षा माँगने आया हूँ। तुम्हें कहाँ कहाँ नहीं खोजा ? उत्तुंग गिरिमालाओं में, सुगंधित घाटियों में-सूर्यनारायण की तेजस्वी किरणों में और चंद्र की शीतल चाँदनी में । कलकल नाद करते सरित प्रवाह में, उमड-घुमड कर आती बदरियों में, लहलहाते खेत खलिहानों में, सनसनाती हवा की लहरियों में और सागर की केलिक्रीडा करती मतवाली तरंगों में ॥ किंतु तुम नहीं मिले। मैं हार गया, निराश और व्यथित हो उठा। उदासी से मेरा रोम-रोम निस्पंदित हो उठा; लेकिन तुम कहाँ थे ? अरे मेरे ही छोटे से कच्चे खपरैलावाले मकान के एक कोने में.. वहाँ तुम अर्से से छिपे बैठे थे शांत-प्रशांत ! मैंने देखा ... देखता ही रह गया !
हे नवकार महान
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