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को प्रशस्त करती है । जिसका नैतिक मार्ग प्रशस्त है, उसका आध्यात्मिक मार्ग भी प्रशस्त है । आचारांग सूत्र का प्रारंभ जीव के नैतिक विकास के सूत्र से होता है । प्रस्तुत आगम जीव के नैतिक विकास की यात्रा एवं आध्यात्मिक परंपरा की कहानी है । यह निर्वाण मार्ग, मोक्ष मार्ग को भी प्रशस्त करता है ।
नैतिकता का गूढार्थ है - आत्मसत्ता के यथार्थ स्वरूप की उपलब्धि | स्व-स्वरूप की उपलब्धि के बाद जीवनदृष्टि तदरूप बनती है । स्वच्छ, विशुद्ध, आचरण नैतिक विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करता है । सम्यक् आचरण का अर्थ है - काम क्रोध, छल, कपट आदि अशुभ वृत्तियों एवं प्रवृत्तियों से दूर रहना । जीवन में अधिकाधिक सद्गुणों का सम्पादन एवं दुर्गुणों एवं विकृतियों से अलगाव इस दृष्टि से पौर्वात्य एव पाश्चात्य नीति विज्ञान भी सहमत है । नैतिकता का विकास यह सामाजिक एवं वैयक्तिक जीवन में समत्व का संस्थापन है । नैतिक समता का अर्थ है - चरित्र का दृढ निर्माण, निम्न आवश्यकताओं का नियमन एवं पाशविक प्रवृतियों पर जागरुकता पूर्वक नियंत्रण |
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आज दुर्व्यसनों के प्रति तेजी से लगाव बढ़ रहा है जो निश्चित रूप से घातक है । जुआ, मांस, मद्य, वेश्या, शिकार, चोरी एवं परस्त्रीगमन आध्यात्मिक विकास में तो अवरोधक है ही परन्तु ये दुर्व्यसन नैतिक, शारीरिक मानसिक, पारिवारिक, राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय हितों के विकास में बाधक तत्त्व है । भूमिका ही यदि विशुद्ध नहीं है तो अव्यवस्थित भूमिका में अध्यात्म का बीज भला किस तरह अंकुरित, पल्लवित एवं पुष्पित हो सकता है। उस जीवन का कोई मूल्य महत्त्व नहीं है जिसमें नीति का समावेश नहीं है । एक कवि ने तो यहाँ तक कह दिया
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जीओ नीति से जो जीना है,
वरना जीना योग्य नहीं है ।
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हमारे यहाँ पर पूर्णिया श्रावक का यह प्रसंग विश्रुत है । पूणिया श्रावक एक बार अपने पौषध कक्ष में धर्मसाधना आराधना में संलग्न थे । उन्हें धर्मसाधना के क्षणों में पूरी रात अत्यंत मानसिक चंचलता का अनुभव हुआ । बार-बार प्रयत्न प्रयासों के
अध्यात्म विकास के दो पहलू : व्यवहार और निश्चय 189