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हमारा अपना जुड़ाव ही हमें ऊंचाइयां सौपता है । परमात्मा प्रभु भगवान महावीर का कथन है
सव्वं अप्पे जिए जियं ।
जिसका अर्थ हैं, एक अपने विकारों को जीत लेने पर सबको जीत लिया जाता है । आत्महित की अभीप्सा जिसके अंतर में है वह साधक सदैव स्वयं को विनय, विवेक एवं सदाचार में स्थिर रखे संयम और तप से पृथक न बने, कभी भी गुरुजनों के अनुशासन से कुपित एवं क्षुब्ध न बनें ! क्षुद्र जनों के साथ संपर्क, हंसी-मजाक, क्रीड़ा आदि का परित्याग करें, बहुत अधिक न बोले बार-बार चाबुक की मार खानेवाले गलिताश्व अर्थात् अड़ियल या दुर्बल घोड़े की तरह कर्तव्यपालन के लिए बार-बार गुरुओं के निर्देश की अपेक्षा नहीं रखे । कोई दुष्कर्म हो जाए तो उसे नहीं छिपाए, बिना बुलाए नहीं बोले, असत्याश्रय न ले, दूसरों के छल छिद्र न देखे, किसीको कष्ट न दे, खाने-पीने में मर्यादा रखें । अर्थयुक्त अर्थात् जो सारभूत हो वह ग्रहण करे एवं जो निरर्थक है उसे छोड़ने का अभ्यास करे । ऐसा करने पर स्वयं के जीवन में जो आनंदात्मक अनुभूतियाँ होगी, वे निसंदेह अभूतपूर्व एवं अनुपम होगी ।
आज जो संकट है वह सारा का सारा संयम हीनता के कारण है । संयम खंडित होते ही समस्याएं बढ़ने लगती है । आज यूं संयम की चर्चाएं चारो ओर है, पर यह विडम्बना ही है कि व्यक्ति आज स्वयं अपने जीवन में संयम रखना ही नहीं चाहता । संयम का अर्थ केवल मुनि जीवन नहीं है, अपितु व्यक्ति के जीवन की प्रत्येक प्रवृत्ति में आवश्यक विवेक एवं अनुशासन से है । जीवन में संयम की उपेक्षा करना घातक दृष्टिकोण है । धर्म और अध्यात्म का लक्षण संयम है । संयम नहीं है वहां धर्म और अध्यात्म की अवस्थिति नहीं है । आगमों में स्थान-स्थान पर संयम की विशद चर्चा एवं विश्लेषण उपलब्ध होता है । संयम के जो विविध प्रकार बताए है उनमें स्पष्ट है हर गतिविधि, हर प्रवृत्ति में संयम अनिवार्य है । हम चाहे बोलते हो, लिखते हो, पढ़ते हो, देखते हो, सोते हो, बैठते हो या उठते हो, घूमते हो, हर प्रवृत्ति संयम मांगती है ।
आध्यात्मिक दृष्टि से संयम और तप
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