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देखते मंजिल तक पहुंच जाता है। उत्तराध्ययनसूत्र के तेईसवें अध्ययन में केशी श्रमण एवं गणधर गौतम के बीच में इस बारे में जो सार्थक चर्चाएं हुई वे सचमुच अत्युपयोगी है । यह ठीक है कि मन चारों तरफ दौड़ने वाले साहसी दुष्ट अश्व के समान है पर जिसके हाथों में वैराग्य और विवेक की लगाम है, वह कभी भी भटक नहीं सकता । मेरे मानस मंच पर किसी कवि की कुछ पंक्तियाँ अनायास प्रस्तुत लेखन के क्षणों में उभर आई है -
विराग मन को आत्मा से, अध्यात्म से जोड़ता है। आत्मा में कोई कलुषता नहीं होती । वास्तव में आत्मा ही ऐसी माध्यम है जिसके द्वारा हम अपने अस्तित्व को जान सकते हैं | आत्मा से जुड़ा हुआ व्यक्तित्व ही आदर्श स्थापित कर सकता है । आत्मा से जुड़े मन का विश्लेषण ही सर्वथा योग्य होता हैं । वही मन उज्ज्वल है जिसमें जिज्ञासा है और है जिज्ञासा के समाधान की ललक । विरक्त अवस्था में जिज्ञासा के समाधान खोजने के अधिक अवसर होते है । वही मन विवेकी है जो सहिष्णुता को स्वीकार करता है और एक विरागी व्यक्तित्व से अधिक सहिष्णु कौन हो सकता है ? यह उपलब्धि पाई जा सकती है अभ्यास, लगन, मेहनत और समर्पण से ।
जैसे किसी विशेष पथ पर चलकर ही लक्ष्य पाया जाता है, उसी प्रकार मन को विशुद्ध बनाने के लिए विराग ही श्रेष्ठ मार्ग है । विराग का अर्थ - केवल वेष परिवर्तन मात्र नहीं है, अपितु आंतरिक वृत्तियों का रूपांतरण है।
अंतरशुद्धि में बाधा उपस्थित करनेवाले मन के छः दोष होते हैं - विषाद, निर्दय विचार, व्यर्थ कल्पना जाल, भटकाव, अपवित्र विचार, द्वेष या अनिष्ट चिंतन । विषाद का अतिरिक्त मनुष्य को कुंद कर देता है। यदि सामान्य व्यवहार से अधिक विषाद है तो वह विमोह को व्यक्त करता है - अथवा उस विषाद के मूल में जाकर अपने किसी स्वार्थ की प्रतिपूर्ति की भावना को प्रकट करता है । निर्दय विचार, निरंतर विचारों की वह श्रृंखला है जो किसीके प्रति पल-प्रतिपल अशुभ सोच को और अधिक तीव्र बनाती जाती है । उस विचार-श्रृंखला में शुभ विचारों को लगातार निरस्त किया जाता है। वह विचार श्रृंखला एक दुर्विचार रूप हो जाती है और उसका
अध्यात्म का आधार : अ
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