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से आत्मा अपने मूल स्वरूप को पहचानकर आध्यात्मिक उन्नयन संपादित करती है, परमात्मस्वरूप का दर्शन करती है ।
जैसे दर्शन मोह के मंद होने पर सदृष्टि का विकास होता है वैसे ही चारित्र मोह के मंद होने पर व्रत निष्ठा का जन्म एवं विकास होता है । दृष्टि सम्यक् होती है, तो सम्यक् चारित्र की आराधना का क्रम भी प्रखर बनता है। एक छोटे से व्रत को लेकर महान साधु व्रत का परिपालन करते हुए आत्मा जब रत्नत्रय की उपासना मे सुस्थिर बन जाती है, तब वैसी विकासशील आत्मा मोह के संस्कारों को समूल क्षय करती है। उपशम की अपेक्षा क्षय की दिशा में पग बढ़ना महत्त्वपूर्ण होता है। इसीलिए ऐसी आत्मा एक दिन अपना पूर्ण उद्यम कर लेती है, जिस परमात्मस्वरूप का वह दर्शन करती है, उसी परमात्मस्वरूप का वह वरण भी कर लेती है। तब आत्मा सदा सर्वदा के लिए अपने निज स्वरूप में स्थित हो जाती है।
जो अपने आत्मशत्रुओं को नष्ट कर देते है, उसे “अरिहंत' कहते है। अरिहंत एवं सिद्ध-अवस्था, में शरीर-त्याग के सिवाय अधिक अंतर नहीं होता, किन्तु मिथ्यादृष्टि से लेकर आत्मा अपने ही विकास के साथ युद्ध करती अपनी सद्भावना एवं निष्ठा के बल पर कर्म-शत्रुओं को नष्ट करती, इस आध्यात्मिक युद्ध में आत्मा क्रमशः विकास के सोपान स्वरूप इन गुणस्थानों पर चढ़ती रहती है। ___ संघर्ष को विकास का मूल कहा गया है । आध्यात्मिक संघर्ष में आत्मा की निर्मलता की अभिवृद्धि होती है। किसी भी मानसिक विकार की प्रतिद्वंद्विता में भी साधारण संघर्ष के समान तीन अवस्थाएं होती है। पहले कभी हार कर आत्मा पीछे गिरती है, दूसरी अवस्था में प्रति स्पर्धा में डटी रहती है तथा तीसरी अवस्था में विजय को वरण करती है। ___इस आध्यात्मिक युद्ध में कर्मों के आक्रमण-प्रत्याक्रमण आत्मशक्तियों को गंभीर
चुनौती देते हैं । यद्यपि सतत जागरूकता के बावजूद कई बार कठिनाईयों से उसमें व्यग्रता और आकुलता भी उत्पन्न हो जाती है | यदि आत्मविश्वास और साहस के बल पर गुणस्थानों का एक-एक सोपान चढ़ती हुई वह रणभूमि में डट जाती है। भावना एवं
आध्यात्मिक विकास क्रम के चौदह सोपान - 165
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