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8_अध्यात्म का स्रोत मन इन्द्रियाँ नहीं : आत्मा है
- ध्यात्म का स्रोत मन इन्द्रियां नहीं ग अपितु चेतना अर्थात् आत्मा है। चेतना का, आत्मा का आभ्यन्तरीकरण उसकी विकासयात्रा है। अध्यात्म के परिवेश में वही प्रवेश पा सकता है जो मोह के आक्रमण एवं प्रत्याक्रमण को चुनौती दे सकता है । जो जीवात्मा इसका रहस्य जान लेता है, वही अध्यात्म की समर भूमि में डट जाता है।
आत्मा ही सत्य है, आत्मा ही तथ्य है, आत्मा ही सर्व रूपेण सार्वकालिक है । आत्मा की अनन्य प्राप्ति ही संसार से निर्मोह, निर्ममत्व को लाती है । आत्मा की अनुभूति ही जीवन की सच्ची अनुभूति है, सच्ची जीवन चेष्टा है। होने को तो तृष्णा भी सदा-सदा की अवस्थिति है, वह कभी भी जर्जर नहीं होती है । किन्तु ये जो तृष्णा है, वह मोह से जुड़ी है । तृष्णा का अर्थ असंतोष की आकांक्षा है। तृष्णा की संलग्नता से अतृप्ति ही बढ़ती है। जो तृष्णा और कषायों से आत्मा को पृथक कर लेता है उसकी देहयाष्टि भी पवित्र हो जाती है . अप्पा दंसणु णाणु, मुणि अप्पा चरणु वियाणि। अप्पा संजमु सीलं तउ अप्पा पच्चक्खाणि ॥
आत्मा को ही सम्यग् दर्शन और सम्यग् ज्ञान जानों । आत्मा को ही सम्यग् चारित्र समझो । आत्मा ही संयम है, शील है तप है । आत्मा ही प्रत्याख्यान है या त्याग है । जहाँ
144 - अध्यात्म के झरोखे से
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