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निज कीधां, जावे कारज सिद्धयां ॥ ६ ॥ मेरु उपर पांडुक वनमां, शिला सिंहासन ठावे; सौधर्मेन्द्रे खोळा मांहि, प्रभु धर्या शुभ भावे; चोसठ इन्द्रो, भाव धरीने, याव्या त्यां उल्लासे; निज निज शक्ति ऋद्धि भावे, इंद्रो पूर्ण विकासे ॥ ७ ॥ अच्युतेंद्रे औषधि तीर्थनीमाटी जल मंगाव्यां; श्रवजातिना कलश जरीने, इंद्रो न्हवराव्या, फूल चंगेरी थाळ रकेबी, उपकारणो बहु जाति; प्रभुनी जक्ति करतां विध विध, निर्मल करता छाति ॥ ८ ॥ भुवनपति ने व्यंतर ज्योतिष, वैमानिक बहुदेवा; अच्युतपतिनी आज्ञा पामी, करता बहुविध सेवा; एकक्रोड ने साठलाख सहु, कलशानो अभिषेक, अढीसे अभिषेक सहु मळी, सुर नहि चूके विवेक ॥। ९ ॥ (थोडो जळ अभिषेक करवो) इशान इन्द्रे करमां लीधा, प्रजुनी भक्ति कीधी; सौधर्मेन्द्रे पंचरूप करी, भक्ति करी प्रसिद्धि; (संपूर्ण जळनो अभिषेक करवो.) पुष्पादिकथी प्रभु वधाव्या, आनंदना कल्लोले मंगलदीवो आरति करीने, सुरवर जय जय बोले ॥ १० ॥ अनेक वाजत्रोने
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