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भुवनाद्भुत् भाग्यभरेज्यपदं
भवनीरधिपोतनिभं शमदं । चिंतकर्मगदौष-छमाप्तवर
प्रणमंतु जितारि सुतं भविकाः ॥१॥ जलदै रुचि पादप पल्लवने
सकलाङ्गि हितप्रदसूक्तितत्ति । विमलातिशयर्द्धि समूहयुतं
नम संभवनाथ जिनाधिपतिं ।।२।।
जगतीतळे भूषणमारहर
स्वपवर्ग सनातन सौख्यकर। स्थिरशांतिनिधिं विपुनर्भवन
प्रणमामि गजध्वजदेहमहं ॥३॥
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