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( ध्रुवपद काफी रागेण गीयते )
महावीर !!! तपगुणनी बलिहारी, तपगुणनी बलिहारी. महावीर० ॥ तपयी लब्धियों प्रगटे जारी, मनडुं बने अविकारी; सुखदुःखमां समभावता धारी, अहंपणं न लगारी महावीर० ॥ १ ॥ बाह्य अभ्यंतर तप जयकारी, पुद्गलनी नहि यारी; राग द्वेषनी वृत्तिसंहारी, परपरिणतिपरिहारी, महावीर० ॥ २ ॥ धन्य धन्य वीर जगजयकारी, सह्या परिषह भारी; प्रगटाव्यं घटमांही केवल, बंदु वार हजारी. महावीर० ॥ ३ ॥ तप ते आतम निश्चय धारी, तपशो नरने नारी; बुद्धिसागरशुद्धातमरस, - स्वाद लह्यो तपधारी. महावीर० ॥ ४ ॥
कलश.
गाइ गाइरे नवपदनी पूजा गाइ ॥ ओगणिश ट्योत्तर आश्विन बीज, मेसाणामां रचाइरे, नवपदनी पूजा गाइ ॥ वीरप्रभुनी पट्टपरंपरा, श्वेतांबर सुखदायी; तपगच्छहीर विजय सूरिजगगुरु, पट्टपरंपरा आइरे. नव० ॥ १ ॥ नेमिसागर रविसागरगुरु, सुखसागरगुरु ध्यायी, नवपदपूजा रचतां
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