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४४० व्यवहार; धर्मप्रनावना बहु करेरे, सुधरावें आचार हो. जगतां चा० ॥५॥ कहेणी रहेणी जेहनीरे. सरखी मुनि शिरदार; ते कालना मुनिवन्दमारे; उस्कृष्टा अनगार हो. ज० चा ॥ ६॥ नावसागरजी नामनारे, शिष्य कर्या अनगार; बीजा सुखसागर कीरे, समता गुणभंडार हो. जण चा० ॥ ७ ॥ जाणे गुरुर्नु सहु गुरुरे, गुरुथी जेह अभिन्न; बुद्धिसागर सदगुरुरे, समभावे लयलीन हो. ज० चा ॥८॥
ॐ गुरुपदपूजार्थ नैवेद्यं य स्वाहा ॥
अष्टमी ध्यानसमाधेिरूपा फलपूजा. ध्यानसमाधियोगथी, प्रगटे सहजानन्द; स. हजानन्दने पामवा, धर्मप्रवृत्तियन्द. ॥ ॥ दर्शन ज्ञानने चरणमां, वर्ते सहजसमाधि, आतम आनन्दफलतणा, स्वादे रहे नहि आधि. ॥२॥ आतम यानन्द पामवा, ध्यानसमाधियाग; उपादान कारण का, निमित्त गुरुसंयोग, ॥ ३ ॥
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