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अष्टमी अंतरायकर्मसूदनार्थे फलपूजा.
दान लाभने जोगने, वीर्य ने उपभोग; पांच तां आवर्णने, हणतां निजगुणयोग. ॥ १ ॥ अंतराय हणवा भवी, फलथी पूजो देव द्रव्यजावथी शक्तिने, पामो करी जिनसेव ॥ २ ॥ दानादिक आवर्णनो, क्षयोपशम क्षय थाय, दानादिक निज शक्तियो, प्रगटे धर्म सुहाय ॥ ३ ॥
(वाजां वाग्यांरे प्रभु दरवाररे, मोहन वाजां वागियां ए राग. )
मुक्तिफलने पात्रा हेतेरे, फले प्रभु पूजीए; सर्व इच्छाओ करीने निरोधरे, निजातम रीजीए;गुणपर्यायदान निज दीजीए, चिदानंदनो लाभज निजरे, फले॥ गुणपर्याय भोगोपभोगमां, परपुद्गलनी नहीं खीजरे. फले ||१|| शुद्ध आतमबन प्रगटावीए, दुष्ट टाळीए पशुवळ वेगरे. फले ॥ मन इन्द्रि योमा पशुबल वसे, तेथी करीए नहिं अविवेकरे. फले || २ || लब्धि शक्तियो ने प्रगटावीए, नही रीजीए स्वीजीए वाझरे. फले० ॥ परमार्थमां तनमन वापरो, करो विश्वमां सारां काजरे. फले ॥ ३ ॥ जैनधर्मने संघनी उन्नति करवामां होमशो सर्वरे, फले० अणशक्तिए खेद न कीजीए, होय शक्ति
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