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२११ निज कीयां, नावे कारज सिद्धयां ॥६॥ मेरु उपर पांडुक वनमां, शिला सिंहासन गावे; सौधर्मेन्द्रे खोळा माहि, प्रभु धर्या शुभ भावे; चौसठ इन्द्रो,भाव धरीने,
आव्या त्यां उल्लासे; निज निज शक्ति ऋद्धि भावे, इंद्रो पूर्ण विकासे. ॥ ७ ॥ अच्युतेंद्रे औषधि तीर्थनी-, माटी जल मंगाव्यां; आउजातिना कलश नरीने, इंद्रोए न्हवराव्या; फूल चंगेरी थाळ रकेबी, उपकारणो बहु जाति; प्रभुनी नक्ति करतां विधविध, निर्मल करता छाति. ॥ ८ ॥ भुवनपति ने व्यंतर ज्योतिष, वैमानिक बहुदेवा; अच्युतपतिनी आज्ञा पामी, करता बहुविध सेवा; एकक्रोड ने साठलाख सहु, कलशानो अभिषेक; अढीसे अभिषेक सहु मळी, सुर नहि चूके विवेक ।। ९॥ (थोडो जळ अभिषेक करवो) इशान इन्द्रे करमालीधा, प्रनुनी भक्ति कीधी; सौधर्मेन्द्रे पंचरूप करी, भक्ति करी प्रसिद्धि; (संपूर्ण जळनो अभिषेक करवो.) पुष्पादिकथी प्रभु वधाव्या,
आनंदना कल्लोले; मंगलदोवो आरति करीने, सुरवर जय जय बोले ॥१०॥ अनेक बाजीत्रोने
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