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१७१ जूठ वदंतां पाप अनंतु, अनेकदोषो प्रकटाता; तेथी बातमप्र ढंकाता, जूठे नहीं देख्या जाता.
স্ত্রালাই प्रभु आज्ञाना लोपक थावं, सत्य अवाजो दबावाता; विश्वासघातादिकदोषोथी, भवमा फेराओ थाता.
लागी०३ जूठाथी विरमुंडं निश्चय, तुज आज्ञा शिरपर धारी; मोहशयतानना फंदे फसुं नहीं, लालच लाखो परिहारी. लागी०४ भवबाजीमा रहुं नहि राजी, जूठनी बाजी नहीं बाजी; बुद्धिसागरप्रभु रह्यो गाजी. हवे न कहुं जूठनी हाजी. लागी० ५
ॐ ह्री श्री परमपूरुषाय, परमेश्वराय,जन्मजरा मृत्युनिवारणाय, श्रीमते जिनेन्द्राय, चन्दनं यजा. महे स्वाहा ॥
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