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॥ द्वितीया श्रुतज्ञानपूजा ॥
श्रुतना च दशनेद छे, वीशभेद परमाण; जिनवाणी श्रुतज्ञान छे, मतिपूर्वकश्रुत जाण. उमुंगां श्रुत बोलतुं, स्वपरप्रकाशक सत्य; स्याद्वादश्रुतज्ञानथी, सफलां धर्मनां कृत्य. प्रकार आदि एकेकनी, पर्याय राशि अनन्त; अनंत स्वपरपर्यायरूप, वर्णमां विश्व समंत. अनादि अनन्त ले श्रुतभलुं, द्रव्यनये भवी जाण; सादि सांत पर्यवनये, - सापेक्षाए प्रमाण. जघन्य अन्तर्मुहूर्त छे, - एकजीवाश्रयी ज्ञान; छासठ सागर अधिक छे, उत्कृष्टी स्थितिमान.
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(सिद्धचक्रपद सेवा कीजे नरभव लाहो लीजेजी. ए. राग. )
निजपर उपकारक श्रुतज्ञानना, बोधक जिन जयकारीजी;
वीर जिनेश्वर पूजी बंदी, श्रुत सेवो उपकारी; महावीर भजीएजी,
मिथ्या श्रुतनो मोह; वेगे तजीएजी. पंचविदेहमां शाश्वतश्रुत छे,
सादि सांत अन्यक्षेत्रे जी;
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