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(४०) शुष्कज्ञानी एकांतवादी, क्रियाजमी उन्मादीरे. ज्ञान० ॥१॥ परोक्ष प्रत्यक्ष ज्ञान बे भेदे, श्रुत स्वपर उपकारी रे; बुद्धिसागर सद्गुरु संगे, रहेशो नरने नारी रे. ज्ञान० ॥१३॥
वीर जिनेश्वर उपदिशे, ज्ञान सकल उपकारी रे; चार निदेपे ज्ञानने, समजो नर अने नारी रे. वीरण ॥१४॥ मति अठ्ठावीश भेदे बे, श्रुत ले चउदश जेदेरे; अवधि असंख्य प्रकार बे, रूपी वस्तु वेदेरे. वीर० ॥१५॥ मन पर्यव बे लेदे डे, मननां पुद्गल जाणेरे; केवल रूपारूपीना, सहु पर्याय पिलाने रे. वीर० ॥१॥ अध्यातमज्ञाने भवी, केवलज्ञानने पामोरे, बुद्धिसागर आतमा, परम प्रभु थै जामोरे. वीर० ॥१७॥
सकल वस्तुसमूह विभासनं । प्रचितकर्म विनाशनकर्मठम् ॥ युगलनावगतं मतिमुख्यकं । विरतिदं रतिदं प्रणिदध्महे ॥१॥ ॐ हूँ। श्री परम.
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