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(२४५ )
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मेरु उपर प्रभुने लाव्या, जलथी इन्द्रे न्हवराव्या; पंचरूप धरी गुण गायारे, तेम स्नात्र करी नरनारी, करे समकित शुद्धि अपारी. प्रभु ॥ २ ॥ जाव समकित जल अभिषेके; मिथ्यामेल रहे न विवेके; पूजो महावीर जिनने टेकेरे, त्यजी जूठी दुनियादारी; प्रभु शरण ग्रही हितकारी प्रभु ॥ ३ ॥ मोंघाकाले नयने दीग, लाग्या श्रातमरूपे मीठा; थया कुदेव मोही अनीवारे, लागी तुजथको एक तारी; लागी तारी मूर्ति प्यारी. प्रभु ॥ ४ ॥ तुज उपर जब सहु वारी, प्रभु ताह्यरो साची यारो; मरुं मर्या पहेलां मोह मारीरे, एवी पूजा बनो हितकारी; करो करुणा हवी सारी. प्रभु ॥ ५ ॥ प्रभु पूजा करूं प्रभुरंगे, निज आतम शुद्ध उमंगे; कदि पहुं न मिथ्या ढंगेरे, बुद्धिसागर प्रभु अवधारी; लही आतम सुखनी खुमारो प्रभु ॥ ६ ॥
ॐ हूँ। श्री प० जलं यजामहे स्वाहा ॥
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