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(१८२) सुखकारी. प्रभु ॥ प्रकृतिरस स्थिति प्रदेश, चारेभेदे बंध न लेश; सत्ता उदीरणा नहीं कलेश, टाळया राग अने मन द्वेष. प्रभु० ॥१॥ टाळया कर्मविपाको सर्वे, रही शुकलध्याने अग; रह्या नहीं परपुद्गल भर्मे, मुंइया नहि मिथ्याजडशमें. प्रभु ॥२॥ नामरूपमा निर्मोह नावे, रहे जे कोइ साक्षीना भावे; नाम कर्मथी बूटो थावे,शुद्ध अरूपपद निज पावे. प्रजु० ॥३॥ नाम कर्म प्रारब्धना भोगो, अनासक्तिए वर्ते योगो; थाय नहीं कंइ हर्ष न शोको, थाय विषम न प्रकटे रोगो. प्रभु० ॥४॥ थतां केवल नाम रहेछे, आयु पर्यंत तेह वहेडे; समजावे ज्ञानी सहेछे, शुद्ध आत्मरमणता चहेछे. प्रभु०॥५॥ प्रभु सरखा थावा माटे, वळो केवल ज्ञानोनी वाटे; माल वेचायछे गुरु हाटे, लेजो स्वार्पण करी शिरसाटे. प्रभु० ॥ ६॥ नामरूप अध्यासने त्यागो, शुद्ध आतम भावे जागो; त्याग ग्रहणमां मनथी न लागो, मोहनावथो दूरे नागो. प्रभु०
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