SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 77
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ६० शुद्ध स्वरुपी चेतनारे, दो भेदे वर्ताय: देहातीत यश श्रतमारे, ज्योति ज्योत मिलाय. अ. ६ शुद्ध स्वरुपे श्रातमारे, सत्ताए सहु होय, बुद्धिसागर घ्यावतां रे, आप स्वरुपे जोय. मेहसाणा. ॥ पद ८१ ॥ . Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ. 9 अब में साचो साहिब पायो, याकी सेवा करतहुं याको, मुज मन प्रेम सोदायो. अ. १ For Private And Personal Use Only वाकुं नरन होवे अपनो, जो दीजे घर मायो; संपति अपनी क्षणमे देवे, वयतो दील में ध्यायो. प्र. श्‍ नुरनकी जन करत हे चाकरी, दूर देश पाऊ घासे; अंतरजामी ध्याने दीसे, वयतो अपने पासे. प्र. ३ नर कबहु कोइ कारण कोप्यो बहोत उपाय न तुसे; चिदानन्द में मगन रहतुद्दे, वेतो कबहु न रुसे. प्र. ४ नुरनकी चिंता चित्ते न मिटे, सब दीन धंधे जावे; श्रीरता सुख पुरण गुण खेले, वयतो अपने जावे. अ. ५ पराधीन हे जोग नरको, याते दोत विजोगी; सदा सिसम सुखविलासी, वयतो निजगुण जोगी. ६ नाव एकहि सब झानीको, मूरख जेद न जावे, अपनो साहिब जो पिलाने, सो जस लीला पावे. अं. ८ शान्तिः ३.
SR No.008625
Book TitlePadsangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherSukhlalji Ujamshi and Manilal Vadilal Sanand
Publication Year1908
Total Pages210
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati & Worship
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy