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१३४ सार शुभ सिहांत सकळy, प्रातम तत्व प्रकाश्यु: ध्याता ध्येय ध्यान एकत्वे, सिह समु सुख नास्युं. घातम परमातम विवेचन दुःख ममता हरनारु: अन्तर्यामी साख पुरे , लाग्यु ते मन प्यारं.१०३ नक्ति ध्याने नपासन योगे, साचो साहिब से, पुरण तत्व स्वरुपे खेलु, निजशक्ति निज देवू. प. ४ शुष्क ज्ञानयो काज न सिच्युं, रहेणीयो घट रीझं अन्तर्यामि सेवा साधु, खळथी कां न खीजु. प. ५ क्षयोपशमयी बाहरमणता, नवमांहि लटकावे, क्षयोपशमथी अन्तर रमता, समन्नावे शिव थावे.६ नुलु नान जगतनुं ज्यारे, जागे अनुन्नव त्यार; क्षायिकन्नावे सर्व प्रकाशक, नतरे पेली पारे. प. ७ अविहम राग मन रंगा', अविहम रटना लागी बुद्धिसागर ध्यान दशाथी, अन्तज्योति जागी. प. ७
साणंद,
॥पद २१०॥. (वैदरनी वनमा वलवले. ए राग.) जागीने जो तुं जीवमा, कोण ले तुं शुं कर्म, क्यांथी पाव्या क्या जावो, मूर्ख समज्यो न मर्म.१ मिकतमां शुं मोहीयो, जूहूं जगनेरे जाण; देही पण नहीं देह , परखो देह प्रमाण जा
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