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॥ पढ़. ११७ ॥
प्रातम अनुभव कोइक पावे, पटवे सो
परघर नहि जावे. श्रातम
परघर नाच नचावत कुलटा, अंतर धन
सब फोली खावे. आतम० १ स्वरुप प्रकाशी तिरोभावे, होवत जब सोहि प्राविजीने परमातम पद सोदि पिबाने, अंतर ज्योति शुइज गावे. प्रातमण् २ दोवत नदि जे कबहु न प्रगटे, प्रगटे सो सत्यरूप कहावे सद् वस्तु तीन कालमा होवे, सत्य नित्य
चेतन परखावे. प्रातम ३ भातम मूल नवमां जटके, समरे तो नीजरूप लखावे; बुद्धिसागर शोधो घटमां, संत मुनीश्वर जाकुं ध्यावे. ४
माणसा.
॥ पद. ११० ॥
समजीले शाला मन मेरा, या संसार न कबहु तेरा; तेरा तेरी पासे नाइ, शोध्या विण अंतर अंधेरा. स. १ कोटियतन करो कबहुन नवतरो,
श्रातमज्ञान विना नहि प्यारा;
अनेकान्त प्रतमकी सत्ता, ध्यातां पावत सुख अपारा. श् बादिर जटके अन्तर मूल्यो, चंचळता मनकी नजनारा
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