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साधु
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कार्य के समय भी उसके दर्शन करने से चूकते नहीं थे ।
एक बार रथ-वाड़ी से हाथी पर सवार होकर लौटते समय वे शान्तुवसही आये । कदम-कदम पर घंटियों का नाद करता हाथी खड़ा रहा। वे हाथी से नीचे उतरे और जब जिनालय के द्वार में प्रविष्ट होने लगे तब निकट के एक कोने पर खड़े एक युवा साधु पर उनकी दृष्टि पड़ी। वह सुन्दर शृंगार की हुई, कजरारे नेत्रों वाली एक रूपवती वेश्या के कन्धे पर हाथ रख कर मुक्त हास्य कर रहा था । शान्तु मंत्री ने उस साधु को अच्छी तरह देखा परन्तु साधु की दृष्टि उन पर नहीं पड़ी। मंत्री ने तुरन्त उत्तरीय ऊपर-नीचे किया और उसके समीप जाकर गौतम स्वामी को वन्दन करते हैं उसी प्रकार विनय पूर्वक उस साधु को 'इच्छामि खमासमणो वंदिउं' कह कर वन्दन सूत्र बोल कर वन्दन किया । वेश्या के साथ छेड़ छाड़ करने वाला साधु बिजली गिरने से मनुष्य चौंक उसी प्रकार शब्द सुनकर तुरन्त स्थिर हो गया। मंत्री ने 'स्वामी शाता है जी' कहा । साधु ने सिर हिलाया परन्तु उसके हृदय में से शान्ति कभी की लुप्त हो चुकी थी । साधु विचार करे उससे पूर्व तो वन्दन पूर्ण करके 'मत्थएण वंदामि' कह कर मंत्री चले गये ।
सचित्र जैन कथासागर भाग
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शान्तु मंत्री ने साधु को आक्रोश पूर्ण वचनों में नहीं कहा कि 'महाराज ! आप जैन साधु हैं अथवा कौन ? आपको जिनालय में रहने दिया है वह क्या ऐसे पाप करने के लिए? चले जाओ, हमें तुम्हारी आवश्यकता नहीं है ।' तथा मधुर वचनों से 'महाराज ! आपकी लघु वय है। आपको लोग उत्तम साधु मानते हैं और आप इस प्रकार वेश्या
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लज्जा से उसकी कुलीनता भांप कर महामंत्री शांतु ने विधि पूर्वक वंदन कर पतन से उत्थान की ओर उनकी गाडी मोड दी! धन्य हो ऐसे गीतार्थ श्रावक को !