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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org पूर्व-भव श्रवण अर्थात् चन्द्रराजा का संयम ७३ लडी मैंने नहीं ली, तेरी साध्वी ले गई हैं । चल तू मैं प्रत्यक्ष बताती हूँ ।' यह कह कर तिलमंजरी रूपमती को साथ लेकर उपाश्रय में आई और आहार का उपयोग करने बैठते समय साध्वी को कहा, 'महाराज, मेरी सखी की लड़ी दो । तुम भिक्षा लेने जाते हो और साथ ही साथ क्या चोरी भी करने जाते हो ?' Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir साध्वी बोली, 'देख लो, यह रहे पात्र और वस्त्र । मैंने लड़ी नहीं ली और हम उसे क्यों लें ?' PARKU TAMLAKALAN KARO तुरन्त तिलकमंजरी ने जहाँ लड़ी बाँधी थी वह छोर खोल कर लड़ी निकाल बताई । साध्वी का मुँह उतर गया । रूपमती ने कहा, 'तिलकमंजरी, यह सब कार्य तेरा प्रतीत होता है । साध्वी पर तूने ही मिथ्या आरोप लगाया है।' तिलकमंजरी बोली, 'क्या तेरी साध्वी के प्रति ऐसी अंधश्रद्धा है, ऐसा अंधराग है ? चुराई हुई लड़ी तुझे प्रत्यक्ष बता दी और साध्वी उसका कोई स्पष्टीकरण नहीं दे रही है, अतः उन्हें बचाने के लिए तू मुझे बदनाम करती है ?" रूपमती ने कहा, 'मैं किसी भी तरह मान नहीं सकती कि साध्वी लड़ी चुरायें, तेरा उनके प्रति द्वेष है अतः उन्हें बदनाम करने के लिए तूने यह कार्य किया है, परन्तु सखी! हँसते हुए इस प्रकार बाँधे हुए कर्म अत्यन्त दुःखदायी सिद्ध होते हैं । ' रूपमती और तिलकमंजरी घर गईं परन्तु साध्वीजी से यह आरोप सहन नहीं हुआ, राणी के कपट से अनभिज्ञ साध्वी ने कहा- देख लो! ये पात्र-वस्त्र. एक तिनके की भी चोरी न करने की आजीवन प्रतिज्ञा वाली हम तुम्हारी लड़ी की चोरी क्यों कर करेंगी? For Private And Personal Use Only
SR No.008588
Book TitleJain Katha Sagar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhranjanashreeji
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages143
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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