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सचित्र जैन कथासागर भाग - २ पर्दे में से शारदानन्दन ने कहा, 'राजन्!'
देवगुरुप्रसादेन जिह्वाग्रे मे सरस्वती।
तेनाऽहं नृप जानामि, भानुमत्यास्तिलं यथा ।। _ 'हे राजा! मैं देव-गुरु की कृपा एवं मेरे जीभ पर सरस्वती का निवास होने से जिस प्रकार मैंने भानुमती की जाँघ का तिल जान लिया था उसी प्रकार राजकुमार का यह समस्त वृत्तान्त जाना है।'
राजा तुरन्त खड़ा हो गया और बोला, 'गुरु शारदानन्दन?' सामने से उत्तर मिला - ‘हाँ।'
राजा तुरन्त पर्दा हटा कर भीतर गया और बोला, 'गुरुदेव! मेरा अपराध क्षमा करें।
राजा एवं शारदानन्दन ने प्रेम पूर्वक परस्पर आलिंगन किया । राजा अपने अविचार के कारण लज्जित हुआ और तत्पश्चात् राजाने अपना अविचारी स्वभाव त्याग दिया और राजा तथा प्रजा दोनों ने विश्वासघात की भयंकरता का विजयपाल के दृष्टान्त से अनुमान लगाया।
(श्राद्धविधि से)
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