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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandiri गृहस्थ होते हुए भी ब्रह्मचारी एवं आहार करते हुए भी उपवासी अर्थात् सूर एवं सोम का वृत्तान्त ५७ से लगा कर आज तक उपवासी रहे हों तो मुझे मार्ग दो।' रानी यह ध्यान कर रही थी कि नदी का प्रवाह बदला और देखते ही देखते सामने के तट का मार्ग छिछला हो गया। रानी घर पर आई परन्तु उसे कुछ भी समझ में नहीं आया कि यह हुआ कैसे? मैंने स्वयं तो मुनि को भिक्षा प्रदान की है । मुनि नित्य भिक्षा लाते हैं और भोजन करते हैं, फिर उपवासी कैसे? और यदि उपवासी न हों तो नदी माता उस वचन को मान्य करके मार्ग कैसे दे? रानी रात्रि में भी यही सोचती रही। इतने में राजा आये। उन्होंने पूछा, 'देवी क्या विचार कर रही हो?' रानी ने कहा, 'प्राणनाथ! मुनि नित्य भोजन करते हैं फिर भी मैं बोली कि दीक्षा के पश्चात् मुनि उपवासी रहे हों तो नदी माता! मार्ग दो।' मुझे मार्ग मिला और मैं आ गई। इसका कारण क्या?' ___ 'देवी! तू समझती ही नहीं कि उनका त्याग कैसा अपूर्व है? उनकी निराशंसता कैसी अनुपम है? देह के प्रति उन्हें ममत्व ही कहाँ है? वे देह को धारण करते हैं, उसका पोषण करते हैं, वह भी पर के कल्याण के लिए। उन्हें चाहे जैसा आहार प्रदान करो, यदि मधुर हो तो उसके प्रति आदर नहीं है और नीरस हो तो उसके प्रति अभाव नहीं है। मुनि तो 'मोक्षे भवे च सर्वत्र'... समान हैं। फिर तो वे उपवासी ही गिने जायेंगे न?' AALIDIO Wr:N TH KATA राजा का मन भोग-भोगते हुए भी, भोगों से विरक्त है, अत: जलकमलवत् निर्लेप जीवन होने से नदी ने मार्ग दिया! For Private And Personal Use Only
SR No.008588
Book TitleJain Katha Sagar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhranjanashreeji
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages143
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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