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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चार नियमों से ओत प्रोत वंकचूल की कथा बाद में वंकचूल की पल्ली के स्थान पर एक विशाल नगरी वसी । वह स्थान अत्यन्त समृद्धिशाली यात्रा-स्थल बना । वहाँ दूर दूर से संघ यात्रार्थ आने लगे और चर्मणवती नदी के तट पर 'चैल्लण पार्श्वनाथ तीर्थ' अत्यन्त विख्यात हुआ। धीरे धीरे वंकचूल एक महान् लुटेरे के रूप में विख्यात हुआ। पहले तो वह छोटे छोटे गाँवों को ही लूटता था, फिर वह बड़े गाँव और कस्वे लूटने लगा और फिर तो शहरों में बड़े बड़े भवनों में लूट करता, चोरी करता और भाग जाता। फिर भी उसका हृदय तो कोमल ही था। एक रात्रि में उज्जयिनी के राजा के शयनागार में महल की पिछली खिड़की से चन्दन गो की सहायता से प्रविष्ट हुआ। उसने वहाँ से हीरे, मोती और स्वर्ण के आभूषण उठाये । इतने में रानी ने उसे देख लिया और उसे पूछा, 'कौन है और यहाँ क्यों आया वंकचूल ने कहा, 'मैं चोर हूँ और यहाँ चोरी करने के लिए आया हूँ।' रानी उसका यौवन एवं मोहक रूप देख कर मुग्ध हो गई। उसने शोर-गुल करके उसको पकड़वाना नहीं चाहा । उसने उसे कहा, 'चोर, तू सुख से धन लेजा | मैं तुझे बचा लूँगी, परन्तु तू अपनी जवानी का लाभ मुझे प्रदान करता जा ।' वंकचूल ने कहा, 'आपकी सब बातें सत्य हैं, परन्तु आप कौन हैं?' वह स्त्री बोली, 'राजमहल में ऐसी स्त्री कौन होगी? राजरानी।' 'तो आप मेरी माता हैं, राजरानी के संग विषय-भोग मेरे लिए उचित नहीं है।' रानी ने कहा, 'तू कहाँ खड़ा है और किसके पास खड़ा है, उसका क्या तुझे पता है? यदि तू मुझे अपने यौवन से तृप्त करने में आनाकानी करेगा तो उसका क्या परिणाम होगा, क्या तुने सोचा है?' ___वंकचूल ने कहा, 'मैं सव जानता हूँ कि मैं यदि आपकी इच्छानुसार कार्य नहीं करूँगा तो आप मुझे बन्दी बना कर कारागार में डलवा देंगी और आप इससे भी अधिक करेंगी तो मुझे फाँसी लगवा देंगी। रानी समझ गई कि यह चोर मेरे वश में नहीं होगा। अतः उसने अपने हाथों अपने वाल बिखेर दिये और 'चोर-चोर कह कर चिल्लाई । चारों ओर से सन्तरी भागे आये और उन्होंने वंकचूल को बन्दी बना लिया। प्रातः वंकचूल को राजा के समक्ष प्रस्तुत किया गया । राजा ने पूछा, 'तू कौन है और राजमहल में क्यों आया था?' । वंकचूल ने कहा, 'मैं चोर हूँ और महल में चोरी करने के लिए आया था। रानी For Private And Personal Use Only
SR No.008588
Book TitleJain Katha Sagar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhranjanashreeji
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages143
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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