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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चार नियमों से ओत प्रोत बंकचूल की कथा (२९) चार नियमों से ओत प्रोत वंकचूल की कथा ४५ (१) वंकचूल का मूल नाम पुष्पचूल था, परन्तु यह पुष्पचूल लोगों को सताता और टेढ़े (कुटिल) कार्य करता जिससे इसका नाम वंकचूल पड़ा । वंकचूल ढींपुरी नगरी के राजा विमलयशा का पुत्र था । इसके पुष्पचूला नामक एक बहन भी थी । इन दोनों भाई-बहन को एक दूसरे के प्रति अत्यन्त प्रेम था । एक बार दरवार में नगर के अग्रगण्य नायक आये और बोले, 'महाराज ! कोई सामान्य व्यक्ति का पुत्र हो तो उसे कोई उपालम्भ भी दिया जाये और कुछ दण्ड भी दिया जाये। यह तो राजकुमार पुष्पचूल है । नित्य उत्पात करे तो कैसे सहन हो ? हम सहन कर सके तब तक तो सहन किया, परन्तु अब हम अत्यन्त तंग हो गये जब आपके समक्ष शिकायत कर रहे हैं ।' राजा ने नगर-निवासियों को उचित कार्यवाही करने का कह कर विदा कर दिया । उसने तुरन्त पुष्पचूल को बुलाकर कहा, 'पुष्पचूल ! तेरी शिकायते दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही हैं। तेरा नाम पुष्पचूल है फिर भी नित्य तेरे टेढ़े-मेढ़े कार्यों के कारण तू वकचूल के नाम से जाना जाता है। प्रजा की रक्षा में रुकावट बनने वाले किसी को भी दण्ड देना राजा का कर्त्तव्य है। उसमें पुत्र हो अथवा कोई अन्य कोई भेद नहीं रखा जाता । मैंने तुझे अनेक बार समझाया है फिर भी तू नहीं मानता । अव तो ठीक तरह से रह सकता हो तो यहाँ रह, अन्यथा यहाँ से चला जा । मुझे ऐसा पुत्र नहीं चाहिये । पुत्र के अभाव में जी लूँगा, परन्तु राज्य की प्रतिष्ठा मिट्टी में मिलने नहीं दूँगा । ' कल मूक बन कर यह सब सुनता रहा, परन्तु फिर अल्प समय में ही ढींपुरी नगर को छोड़ देने की उसने तैयारी कर ली। उसके पीछे उसकी छोटी बहन और पत्नी भी जाने के लिए तत्पर हो गई। राजा विमलयश ने मन मजबूत किया और वकचूल के पीछे जिसे जाना था उन सबको जाने दिया । (२) वकचूल राजपुत्र था, धनुर्धारी था और पराक्रमी था । वह एक लुटेरों के एक दल में सम्मिलित हो गया और कुछ ही दिनों में तो वह उन लुटेरों का नायक बन गया। उसने एक सिंहगुहा नामक पल्ली में अपना छोटा सा राज्य स्थापित किया । एक बार एक आचार्य विहार करते-करते जंगल में भटक गये। इतने में वर्षावास का समय निकट आ गया। साधु-मुनि वर्षाकाल में विहार कर नहीं सकते, अतः वे इस सिंहगुहा नामक पल्ली में आये और उन्होंने वंकचूल से वर्षावास के लिए स्थान For Private And Personal Use Only
SR No.008588
Book TitleJain Katha Sagar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhranjanashreeji
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages143
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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