SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 45
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सचित्र जैन कथासागर भाग ३४ यहाँ पर हर्षातिरेक से मरीचि ने निकाचित नीच गोत्र कर्म का बंध किया । (८) विश्व-धरातल को पावन करते हुए एक बार चौतीस अतिशयों के धारक भगवान ऋषभदेव का अष्टापद पर्वत पर पदार्पण हुआ । पर्वत के रक्षकों ने यह समाचार चक्रवर्ती भरत को दिया । ऐसी श्रेष्ठ बधाई देने के बदले चक्रवर्ती ने उन्हें साढ़े बारह करोड स्वर्ण मुद्राएं पुरस्कार स्वरूप दीं । तत्पश्चात् वे सपरिवार अष्टापद पर्वत पर गये और वहाँ भगवान की प्रदक्षिणा करके उनको वन्दन किया और उनकी देशना श्रवण की । अपने महाव्रतधारी भाइयों को देखकर भरत के मन में भ्रातृ-प्रेम उमड़ पड़ा। अपनी चक्रवर्ती की ऋद्धि एवं हजारों यक्षों एवं सेवकों के होते हुए भी भाइयों के बिना वह जंगल में खड़े ठूंठ के समान प्रतीत हुआ, 'मैं बड़ा होते हुए भी छोटा हूँ और आयु में लघु होते हुए भी हृदय के उदार भाव से ये सचमुच बड़े हैं। मैं चक्रवर्ती के सुखों का उपभोग कर रहा हूँ और ये मेरे भाई दुष्कर तपस्या कर रहें हैं। जिसने अपने भाइ भी अपने नहीं गिने उसके लिए जगत् में अन्य कौन अपना होगा ? ये विचार उत्पन्न हुए । For Private And Personal Use Only - भरतेश्वर भगवान के पास गये और अपने भाइयों को राज्य ऋद्धि लौटाने का कहकर घर ले जाने की विनती की। भगवान ने कहा, 'भद्र भरत! देह एवं मन की भी परवाह CA भरत ने मरीचि से कह 'मैं तुम्हारे भगवे वेष को बंदन नहीं कर रहा हूँ मगर, तुम अंतिम तीर्थंकर बनोगे इसलिए वंदन कर रहा हूँ. २
SR No.008588
Book TitleJain Katha Sagar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhranjanashreeji
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages143
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy