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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अडिग धैर्य के स्वामी अर्थात् गजसुकुमाल मुनि १७ सन्ध्या का समय था । सूर्यदेव क्षितिज में अस्त हो रहे थे। नंगे बदन कायोत्सर्ग ध्यान में एक युवा महा मुनि स्मशान में आत्मरमण में तन्मय थे। जगत् की नश्वरता एवं असारता को दर्शाने वाली, धाय- धाँय कर जलने वाली चिताएँ उनके ध्यान में गति प्रदान कर रहीं थीं और क्रूर पक्षियों के स्वर उनके हृदय को दृढ़ कर रहे थे । इतने में वहाँ सोमशर्मा ब्राह्मण आया। यह सोमशर्मा गजसुकुमाल का ससुर था। उसने जब गजसुकुमाल को देखा तो उसके नेत्रों से अंगारे बरसने लगे । वह बोला, 'इसे मोक्ष की अभिलाषा थी, संयम की हठ थी और हृदय में त्याग की बाढ़ आ रही थी, तो मेरी पुत्री के साथ विवाह करने की क्या आवश्यकता थी? पतिविहीन बनी स्त्री का क्या होगा उसका विचार किये विना ही निकल पड़े ऐसे ढोंगी को मैं अच्छी तरह दण्ड दूँगा ।' ༡༩ཊ། क्रोध की ज्वाला से धधकते सोमिल के हृदय को स्मशान के अंगारों ने अधिक प्रज्वलित किया । वह एक फूटे मटके का ठीब लाया और उसे उसने मुनि के सिर पर गारे से चिपका दिया । उसने उसमें ठसाठस अंगारे भर दिये और बोला, 'इसे मोक्ष में जाने की शीघ्रता है तो मैं इसे शीघ्र मोक्ष में भेज देता हूँ ।' मुनि की देह जलने लगी । साथ ही साथ कर्म भी जलने लगे और मुनि ने विचार किया कि सोमशर्मा सचमुच मुझे मोक्ष- पगड़ी पहना रहे हैं।' इस मरणान्त उपसर्ग का गजसुकुमाल ने सुअवसर समझ कर स्वागत किया । अपना मन दृढ़ किया । देह एवं आत्मा के पृथक भाव का चिंतन किया । ठी में भरे हुए अंगारों ने तुरंत लोच किये गजसुकुमाल के सिर की चमडी सोमिल ने एक फूटे मटके की ठीब लेकर मुनि के सिर पर गारे से चिपका दिया और, ठसा ठस अंगारे भरकर गुस्से में बोला!... For Private And Personal Use Only
SR No.008588
Book TitleJain Katha Sagar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhranjanashreeji
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages143
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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