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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सचित्र जैन कथासागर भाग - २ (२४) क्षमा की प्रतिमूर्ति स्कन्दकसूरि का चरित्र (१) मूनिसुव्रत स्वामी भगवान के समय की यह कथा है। स्कन्दक एवं पुरन्दरयशा यह भाई-बहन की जोडी थी। उनमें परस्पर अपार प्रेम था। श्रावस्ती नगरी के नृप जितशत्रु एवं रानी धारिणी इन पुत्र-पुत्री से अत्यन्त सन्तुष्ट थे, फिर भी उन्हें एक ही चिन्ता रहा करती थी कि पुरन्दरयशा चाहे कुछ भी हो फिर भी पर-घर की लक्ष्मी है । कभी न कभी उसका विवाह तो करना ही पड़ेगा, परन्तु स्कन्दक तो उससे तनिक भी दूर नहीं रहता और जब वह उसे नहीं देखता तो आधा हो जाता है, बेचैन हो जाता है। मुझे पुरन्दरयशा की अपेक्षा स्कन्दक की अधिक चिन्ता होती है कि जब पुरन्दरयशा ससुराल जायेगी तब इसका क्या होगा?' - समय व्यतीत होता रहा । पुरन्दरयशा ने यौवन में प्रवेश किया। स्कन्दक के प्रति चाहे जितना भ्रातृ-प्रेम था फिर भी कुम्भकार नगर के राजा दण्डकाग्नि का संग उसे अधिक प्रिय लगा और उसके साथ विवाह करके वह ससुराल गई। स्कन्दक ने समझदार, सरल एवं धर्म का रागी होने के कारण पुरन्दरयशा से अपना चित्त हटाया और उसे धर्म-मार्ग में लगाया। स्कन्दक को पुरन्दरयशा का संग छोड़ने के पश्चात् अन्य संग की आवश्यकता नहीं थी। उसने धर्म-ग्रन्थों का पठन प्रारम्भ किया और घण्टों तक वह तत्त्व-गवेषणा में निमग्न रहने लगा। (२) एक बार राजा जितशत्रु एवं राजकुमार स्कन्दक दरबार में बैठे हुए थे। वहाँ राजा दण्डाग्नि का पुरोहित पालक आया । राजा ने दामाद के पुरोहित का सम्मान करके उसे उचित आसन दिया। पालक वेदों एवं स्मृतियों का श्रेष्ठ विद्वान् था, फिरभी जैन धर्म के प्रति उसे द्वेष था। उसने बात ही बात में जैन धर्म की स्नान नहीं करने आदि की रीतियों का वर्णन For Private And Personal Use Only
SR No.008588
Book TitleJain Katha Sagar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhranjanashreeji
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages143
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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