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हिंसा का रुख अर्थात् आत्मकथा की पूर्णाहुति
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मुनि बोले, 'राजन् ! मानव को उसकी विचारधारा कभी अनुत्तर विमान में ले जाती है और कभी पछाड़ कर नरक में ढकेल देती है। तेरे पिता को अविहड़ संयम के प्रति राग था। वे राज्य एवं सत्ता दोनों को बन्धन स्वरूप मानते थे, परन्तु किसी अशुभ पल में उन्हें एक दुःस्वप्न आया । उस स्वप्न को निष्फल करने के लिए उन्होंने आटे के मुर्गे का वध किया और उस पाप से उनके जीवन की सम्पूर्ण बाजी परिवर्तित हो गई। तेरी माता नयनावली ने दीक्षा के पूर्व दिन ही उन्हें भोजन में विष दे दिया, जिससे उनकी मृत्यु हो गई । मृत्यु के समय उत्तम अध्यवसाय न होने के कारण शत्रुता से वे और तेरी दादी मर कर पशु-पक्षियों में परिभ्रमण करते रहे । प्रथम भव मोर एवं कुत्ते का किया। वे दोनों तेरे दरबार में आये और तेरे समक्ष अशरण के रूप में मृत्यु के मुख में समा गये । तत्पश्चात् दूसरे भव में वे दोनों नेवला और साँप बने । यहाँ भी परस्पर लड़कर उनकी मृत्यु हुई। तीसरे भव में तेरा पिता रोहित मत्स्य बना और तेरी दादी ग्रहा बनी । ग्रहा कों तेरी दासी की रक्षार्थ तेरे सेवकों ने मार दिया और रोहित मत्स्य को तो तूने स्वयं मरवा कर अत्यन्त आनन्द से उसका भोजन किया । राजन् ! जगत् के अज्ञान का इससे दूसरा दृष्टान्त क्या होगा ? चौथे भव में तेरी दादी बकरी हुई और तेरा पिता बकरा हुआ । यह बकरा अपनी माता के प्रति ही आसक्त हुआ और वहाँ मर कर अपने ही वीर्य में अपनी माता बकरी की कुक्षि में आया। उसके जन्म के पश्चात् बकरी भी दुर्दशा से मर कर भैंसा बनी। उस भैंसे का तूने ही वध किया और परिवार के साथ तूने उसका आनन्द पूर्वक भोजन किया । भोजन करतेकरते तुझे भैंसे का माँस पसन्द नहीं आया, अतः तेरा पिता जो बकरा था, उसका वध करा कर तूने उसका माँस खाया। राजन् ! कर्म की विचित्रता तो देखो। जिस पिता और दादी के गुणों का तू आज भी स्मरण करता है उसी पिता और दादी का तू हत्यारा है, उसका तुझे थोड़ा ही ध्यान है ? गुणधर ! यह भैंसा और बकरा मर कर छठे भव में मुर्गा और मुर्गी हुए। जयावली के साथ काम-क्रीडा करते समय तुझे शब्दवेधिता बताने की भावना जाग्रत हुई और तूने उस शब्दवेधि बाण से उन दोनों का तत्काल संहार किया, परन्तु इस समय उनकी मृत्यु से पूर्व उनमें धर्म का संस्कार उत्पन्न हुआ था, जिसके फल स्वरूप उनकी द्वेषधारा में परिवर्तन आया और मरते-मरते उन्होंने सुकृत का संचय किया, जिसके कारण वे दोनों मर कर तेरी ही रानी जयावली की कुक्षि में पुत्र-पुत्री के रूप में उत्पन्न हुए। राजन् ! तेरा अभयरुचि ही तेरा पिता सुरेन्द्रदत्त है और तेरी पुत्री ही तेरी दादी चन्द्रमती है । राजन् ! तुम सब एक ही भव में हो । उस बीच आटे के मुर्गे की हिंसा मात्र से तेरे पिता और दादी बीच में अन्य छः भव करके तेरे यहाँ पुनः उत्पन्न हुए हैं । फिर भी ये भाग्यशाली हैं कि उनका द्वेष का किनारा अधिक दीर्घकाल तक नहीं चला, अन्यथा अनेक जीव तुच्छ राग-द्वेष एवं हिंसा की
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