SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 13
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandiri सचित्र जैन कथासागर भाग - २ (३) ____ 'मेरी रक्षा करो, मेरी रक्षा करो' कहता हो उस प्रकार एक कबूतर जब राजा पौषध लेकर दूसरों को उपदेश दे रहे थे उस समय उनकी गोद में आकर गिरा। राजा कुछ विचार करे उससे पूर्व तो पंख फड़फड़ाता हुआ एक विशाल बाज वहाँ आया और बोला, 'राजा तू कबूतर मुझे दे दे, यह मेरा भक्ष्य है, मैं भूखा हूँ।' भय से काँपता हुआ कबूतर बोला, 'राजन्! मुझे बचाओ, मुझे यह मार डालेगा। मैं आपकी शरण में आया हूँ।' राजा खड़ा हुआ । उसने वाज (श्येन) को कहा, 'पक्षीराज! कबूतर सीधा और सरल प्राणी है । वह मेरी शरण में आया है । मैं क्षत्रिय होकर शरणागत को कैसे सौंप सकता हूँ? मैं कदापि नहीं सौंपूँगा।' मुस्कराता हुआ बाज मानव-भाषा में बोला, 'राजन्! भूख से मेरे प्राण निकल रहे हैं। कठिन परिश्रम से मुझे यह कबूतर प्राप्त हुआ है। एक को बचा कर दूसरे का संहार करने में क्या धर्म है? मेरा भक्ष्य मुझे लौटा दो।' बाज! मैं तुझे भूखा मारना नहीं चाहता। मेरे राज्य में खाद्य-सामग्री का अभाव नहीं है। तू जो माँगे वह खाद्य-सामग्री मैं तुझे देने के लिए तत्पर हूँ। घेवर, लापसी, लड्डू जो चाहिये वह और जितना चाहिये उतना दूंगा।' राजा ने खाद्य-सामग्री मंगवाने की तत्परता से कहा। ___ 'राजन्! मेरे जैसा वन-वासी श्येन पक्षी ऐसा आहार नहीं करता। मेरा भोजन तो माँस है और वह भी मेरे सामने काट कर दिया जाये वही माँस मुझे चाहिये ।' राजा के उत्तराभिलाषी बाज ने कहा। राजा ने कहा, 'विहंगराज! यह तो अति उत्तम । मैं अपनी देह में से कबूतर के तोल के बराबर माँस काट कर तुझे दूं तो चलेगा न?' पक्षी बोला, 'अवश्य चलेगा, परन्तु हे मुग्ध नृप! पक्षी के लिए हजारों का पालक तू क्यों अपना जीवन दाव पर लगाता है?' ____ 'विहंगराज! यह जीवन किसका शाश्वत रहा है? आज नहीं तो कल देह तो जायेगी ही। मैं मानव भव में शरणागत का घातक कहलाऊँ यह उचित है अथवा शरणागत के लिए मैं अपना जीवन अर्पित करूँ यह उचित है?' राजा ने सेवकों को आज्ञा दी और तराजू मँगवाया । एक पलडे में काँपता हुआ कबूतर रखा और दूसरे पलड़े में अपनी जाँघ काट कर माँस के टुकड़े रखे। __ भाई सुत रानी वलवले हाथ झाली कहे तेह धर्मी राजा एक पारेवा ने कारणे शुं कापो छो देह? For Private And Personal Use Only
SR No.008588
Book TitleJain Katha Sagar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhranjanashreeji
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages143
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy