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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११० सचित्र जैन कथासागर भाग - २ आ रहा है। उसे कोई रोक नहीं सकेगा । इन पक्षियों को धर्म प्राप्त कराने में तु तनिक भी प्रमाद मत करना।' कालदण्ड सचेत हो गया । उसने हमारे आसपास चक्कर लगाने प्रारम्भ किये। उस समय हे मारिदत्त नृप! गुणधर राजा को अपना शब्द-वेधी गुण बताने की उत्कण्ठा हुई। वह अपनी रानी जयावली को कहने लगा, 'देवी! मेरी शब्द-वेधी विद्या का प्रभाव देखना है? मैं यह तीर छोड़ता हूँ जो अभी पक्षी बोला है उसे मार कर ही रुकेगा।' उसने तुरन्त तीर चढ़ाया और जिस ओर से शब्द सुनाई दिये थे उस दिशा में उसने तीर छोड़ा । सननन की आवाज करता हुआ तीर आया और कालदण्ड और मुनि के देखते देखते हमें आरपार वींध कर हमारा संहार करके आगे निकल गया। इस शब्द वेधी गुण से गुणधर को अत्यन्त हर्ष हुआ परन्तु हमें जातिस्मरणज्ञान हुआ होने से और अभी अभी मुनिवर से धर्मोपदेश सुना होने से हम कलुषित-हृदयी नहीं वने । हमारे मन में यह विचार आया कि, 'हे जीव! पाप तूने किया है तो उसका फल भोगने के लिए तु सचेत हो जा। इस एक पाप में से तूने अनेक पाप करके भवपरम्परा में वृद्धि की है। आज पाप की परम्परा दूर करने के लिए तू समभाव रख। राजन् मारिदत्त! समभाव लाते हुए मुनि एवं कालदण्ड से संकल्प प्राप्त कर शुभ अध्यवसाय में हमारी मृत्यु हो गई। यह हमारे कल्याण का मंगल मुहूर्त था और पाप की दिशा का परिवर्तन हुआ | राजन्! इस प्रकार दुःस्वप्न में बताये अनुसार मैं ऊपरी मंजिल से नीचे गिरा । इस प्रकार हमारे विवेकरहित तिर्यंच गति के छः भव व्यतीत हुए। समस्त भवों में हम एक के पश्चात् एक हिंसा करते गये और पाप एवं दुःख में वृद्धि करते गये । पाप एवं पुण्य में यही महत्त्व है कि एक पाप अनेक पापों को खींचता है और इस प्रकार जीवन को अन्धकार में ले जाता है, जबकि उत्तम पुण्य पुण्य करा कर जीवन को आगे से आगे खींच ले जाता है। इस प्रकार हमारी पाप-प्रकृति हमें एक के पश्चात् एक पापपरम्परा में खींच ले गई। For Private And Personal Use Only
SR No.008588
Book TitleJain Katha Sagar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhranjanashreeji
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages143
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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