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प्रगूढभावनी तमे अगूढता करी, प्रमूढलोकनी घणीज मूढता हरी; अगाधभावमा अगाधबुद्धि स्पर्शति, स्वीकारजो सदा अमारी आ नमस्कृति. कविता प्रसंगमां कवित्व दर्शतुं, हरेक सौम्य वातमांही हुं हतुं; न जाणुं आपनी गुरो ! कइ हती गति, स्वीकारजो सदा अमारी आ नमस्कृति. ॥७॥ मधुर ज्ञाननां तमे उबाडी वारणां: उद्धार लोकनो कर्यो उतारुं वारणा: अजित शिष्यनी पदाब्जमांही विनति, स्वीकारजो सदा अमारी आ नमस्कृति. ॥८॥
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मस्त फकीरी.
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पूनमचांदनी खोली पूरी अहींरे-ए राग. अति अलमस्त फकीरी बुद्धिसागर महाराजनीरे, जेनुं वर्णन करतां वाणी विरमी जाय, अति-ए टेक. साखी - शांतस्वरूप सोह्यामनुं, शांतस्वरूप सत्कर्म; शांत भरेली वाणीथी, पावन पाल्या धर्म. निर्मल एक अगोचर अलख निरंजन ध्यानमारे; अवधूत एवी दशानी वृत्ति केम विसराय अति० ॥ १ ॥