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इच्छकार ए सूत्रथकी मुनिवन्दन कीg, गुरुगृहस्थो होय, एहवं कांइ न सिद्धयु, गुरु वादणां सूत्र वांचीने सत्य ज समजो, समजो सत्य स्वरूप धर्ममां प्रेमे रमजो, पंचिंदिय महासूत्र छे गुरू साधुने मानिया, घरबारी नहि गुरूगृहस्थी व्यापारी जे वाणिया ॥६५॥ वीरप्रभुए समवसरणमां संघ ज थाप्यो, महाकर्ममिथ्यात्वतको मारग उत्थाप्यो, शाशननो सहुभार कह्यो सूरिवरना माथे, गणधरशीर्षे वास कों पोताना हाथे; परंपरा निज पहनी सूरिवरथी शुभ चालशे, जैनशाशन गुरुमूरिनी संघ आज्ञा पाळशे. ॥६६॥ साधु सूरिवर थाय चतुर्विधसंवे सारा, जिनशाशन प्रतिपाळ जगत्मा जयजयकारा; आचारज उवझाय गणि रत्नादिक ज्यां छे, होवे एवो गच्छ संयतिवास ज त्यां छे, उपदेशमाळा भाखियुं गच्छ विना नहि संघ छे; संघनां सुलतान सूरियो समतानंद सुरंग छे. ॥३७॥ पूर्वाचार्यों वचन विचारो समजो साचं, लागे जेह धतींग तेहने समजो काचुं; मळीयो मानवदेह अरे गुं ? फोगट हारो, समजी भव्यो! सत्य सत्य आतमने तारो; ज्ञानिगुरुवर संगथी मानव ! आतम तारजो, दृष्टिरागे लीन थइने जीवनने नहि हारजो. ॥६८॥
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