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बुद्धिसागर प्रणवमंत्रे इच्छीए ते झट मळे. ॥१९॥ ब्रह्मरंध्रमां प्रणवमंत्रने प्रेमे स्थापो, ब्रह्मरंध्रमां प्रणव मंत्रना करीए जापो ब्रह्मरंध्रमां परम समाधि मंगलकारी, उपादान निमित्त हेतुना पुष्ट थनारी. प्रणवमंत्रना ध्यान योगेज लब्धि रुद्धि प्रगटती, बुद्धिसागर गुरुकृपाथी प्रणवमंत्रे छे गति. ॥२०॥ गुरुकृपाथी प्रणवमंत्रनी सिद्धि थावे, गुरुकृपाथी सर्व सिद्धियो प्राणी पावे; सुगुरा जनने प्रणवमंत्र तो तुर्त फळे छे, सुगुरा जनने प्रणवमंत्र, सार मळे छे प्रणवमंत्रनो सत्य महिमा माणसा आवी रच्यो, सुखाब्धि गुरुना प्रतापे बुद्धिसागर मन पच्यो. ।। २१ ॥
दुनिया बगीचो.
गझल. जगत्नी बागने देखं, विवेके सत्यने पे, भ्रमर थइ बागमां रमतो, गमे त्यां चित्तथी भमतो. ॥ १ । जगत्ना वागनां पुष्पो, खीलेलां ते पडे छे तुर्त; खोलीने कोइ खरेछेरे, इतरने कोइ हरेछेरे. ॥२॥ जगत्नो बाग स्वमासम, नहि ते नित्य रहेनारो, भ्रमर तुं भूल नहि मिथ्या, जगत्थी सुख नहि क्यारे.॥३। जगत्ना बागमां कूवा, पडया ते भ्रांतिथी मुआ; जगत्ना बागमां दुःखो, मळे नहि मोही सुखो. ॥४॥ भ्रमर तुं भूल नहि भोळा, तगे छे मृत्युना डोळा; जगत्ना बागमां भ्रांति, मळे नहि सत्य के शांति. ॥५॥
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