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२७३ अभिमान छाजतो नथी.
छप्पयछंद. छाज्यो नहि अभिमान कोइनो आ दुनियामां; छाज्यो नहि अभिमान कोइनो मोज मझामां, छाज्यो नहि अभिमान कोइनो उमर आखी; छाज्यो नहि अभिमान कोइनो सना राखी, छाज्यो नहि कदी छाजशे नहि अभिमान महा नीच छे; बुद्धिसागर समजशो जन निरभिमाने उच्च छे. ॥१॥ राज्य मळ्याथी छाके जे अभिमाने भारी; रावण जेवा नृपति पण चाल्या सह हारी, देह सुकोमल कदली जेवी झट करमाशे; फूले शुं नृप फोक मळ्युं सहु चाल्युं जाशे, चक्रवर्ति पण चालिया तो तारो शो जग भार छे; बुद्धिसागर समज रे नृप धर्म कर्म एक सार छे. ॥२॥ शेठो थइ जे दान न आपे शाना शेठो; कंजुस थइ पैसाने माटे करता वेठो, गाडी वाडी ललना धनने देखी म्हाले; गरीब जन मागे पण तेने कांइ न आले, धर्म कर्म शुभ सार छे एक समजशो जग शेठिया; धर्म करणी दान विना तो शेठिया पण वेठीया. ॥३॥ सत्ता धारी थइने जे जन गरीब दंडे, अभिमानना तोरे फूली नीति छंडे; गरीब जननुं बुरु ताके ते नहीं सारा, सत्ताधिकारी एवा तो जग जाण नठारा; अभिमान करशे जगतमां तेज दुःखी जाणजो, बुद्धिसागर समजीने शिख सत्य मनमां आणजो. ॥ ४ ॥
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