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निन्दा.
छप्पयछंद. निन्दानो करनार जगत्मां पापी पूरो, निन्दानो करनार जगतमां दोपे शूरो; निन्दानो करनार जगत्मां मोटो पापी, निन्दानो करनार जगत्मा जूठ विलापी; नाम देइ निन्दा करे ते जगत्मां चंडाळ छे, निन्दानो करनार खरेखर जगत्मां विकराळ छे. ॥१॥ परनी लवरी जे जन करतो ते नहि रुडो, परलवरीमां रक्त जगत्मां सहुथी मूंडो; इर्ष्याने अभिमान थकी जे निन्दा करतो, क्रोधथकी निन्दक नर कदीय न ठामे ठरतो; निन्दा लवरी जे करे जन वदन तेहनुं बाळg, दोषदृष्टि कागडा जन वदन नहि तस भाळवं. ॥२॥ पर अपवादे भव्य जाणजो मुखड़े दोषी, कहेतो परना दोष बने छ निज निदोषी; चोथो छे चंडाळ जगत्मां निंदक नागो, निंदक सहुथी नीच संगथी दूरे भागो; जबतक दृष्टि दोषनी छे बहु तबतकतो अंधेर छे, जगत् जीवो जाणजो अरे निंदा मोडं झेर छे. ॥३॥ निन्दाथी छे वैर झेरने हिंसा मोटी, निंदा दुःखनी खाण जगत्मां निन्दा खोटी; निन्दाना करनार जनोना नहि छे तोटा, गप्पां मारी जूठ वचनथी वाळे गोटा; निन्दक नरके जइ पडे अहो दुःख रौरवथी रडे,
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