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धरु नहि आत्मवण प्रीति, धरी में आत्मनी रीति; बुद्धयन्धि आत्मनी कहेणी, खरेवर आत्मनी रहेणी ॥१०॥
स्वार्थ महिमा.
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गझल.
॥ १ ॥
जगतमां स्वार्थना दरिया, सहुजन स्वार्थथी भरिया, जगत्मां स्वार्थना प्रेमी, जगतमां स्वार्थना नेमो. जगत् सहु स्वार्थमां गाजे, रहे नहि स्वार्थथी लाजे, जगत्मा स्वार्थनी यारी, जगत् छे स्वार्थनी क्यारी ॥ २ ॥ जगत्छे स्वार्थनुं प्रेर्यु, जगत् छे स्वार्थं घे, जगतमां स्वार्थथी पापो: जगतमां स्वार्थनी छापो ॥ ३ ॥ जगतमां स्वार्थनी होळी, मनोहर स्वार्थनी बोली, ' जगत् सहु स्वार्थथी अंधु, जगत् सह स्वार्थथी बन्धु ॥ ४ ॥ जगत्मां स्वार्थना शिष्यों, जगतमां स्वार्थथी रीसो, जगतमां स्वार्थथी माया, जगत्मां स्वार्थना जाया. ॥ ५ ॥ जगतमां स्वार्थथी मोटा, जगतमां स्वार्थना गोटा, जगत् सहु स्वार्थथी घेल, जगत सह स्वार्थथी मेलु. ॥ ६ ॥ जगत् सह स्वार्थ पूजारी, जओने तत्वधी धारी. जगतमां स्वार्थ छे मीठो, जगतमां स्वार्थ ले घीठो ॥ ७ ॥ जगत्मां स्वार्थ छे भारी, गया सह स्वार्थथी हारी, जगत्मां स्वार्थनां व्हालां, जगतमां स्वार्थथी कालां ॥ ८ ॥ जगतमां स्वार्थ छ कालो जगत्मां स्वार्थ कंटाळो, जगत्मा स्वार्थ छे खाडो, सदा छे मुक्तिथी आडो. ॥ ९ ॥ जगतमां स्वार्थथी सेवा, जगत्मां स्वार्थना मेवा, जगत्मां स्वार्थ छे बुरो, जगत्मां स्वार्थ छे शूरो. ॥ १० ॥
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