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१४३ श्री वीरप्रभुम्तुतिः
भुजंगी छंद. नमो वीर विश्वेश देवाधिदेवा; सदा ताहरी शीखमां शर्म मेवा, प्रभु पादपद्मे रहुं गरूपे; प्रभु रूपने हुं चहुं छं उमंगे. प्रभु तुहि साचो मुदा पाय लागुं, मुदा ताहरा ध्यानमां नित्य जागुं, हॅण्या रागने द्वेष ज्ञानेज भारी, अहो शक्ति भारी स्वभावेज त्हारी. जगज्जंतुने तारिया देशनाथी, गॅण्यो भेदना तें प्रभुरे कशाथी, अहो ताहरा ज्ञानमा सर्व भासे, अहो ताहरा ध्यानमां चित्त वासे. दिले वीरनी भक्ति लागीज साची, रहुं वीरनी भक्तिमां नित्य राची, प्रभु भक्तिथी शक्ति सर्वे पमाती, प्रभु भक्तिथी द्वेषनी जाय काती. प्रभु भक्तिथी दुःखना वृन्द जावे, प्रभु भक्तिथी सत्य आनंद थावे, प्रभु ज्ञानथी भक्तिमां भाव सारो, प्रभु ज्ञान भक्तिथकी दुःख आरो. जिने भाखियुं तत्त्व चैतन्य सारु, सदा शुद्ध चैतन्य छे तेज मारु, चिदानन्दरूपे प्रभु तुं सुहायो,
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