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गुरु निन्दा बहु पातकी, गुरु निन्दा बहु पाप; गुरु निन्दक मुख देखतां, अशुभ दिन सन्ताप. ॥ १३ ॥ दया धर्म जगमां वडो, दया धर्म मुखकार; दया नहि त्यां धर्म नहि, समजो नर ने नार. ॥ १४ ॥ बुद्धिसागर ज्ञानथी, तत्त्व हृदयमा धार; आतम सरखा जीव सहु, समजी कोइ न मार. ॥ १५॥ हिंसा जूठ चोरी अने, व्यभिचार महादोष; दया क्षमा उपकार धर, सत्य धर्म सन्तोष. ॥ १६ ॥ जो तुं समजे धर्मने, यथा शक्तिथी आपः बुद्धिसागर प्रेमथी, खरा भक्तनी छाप. ॥१७ ॥ गुरुकृपाथी पामिए, मुखशान्ति आराम; गुरुकृपा विण बापडा, लहे न आतमराम. ॥ १८ ॥ गुरुनी आज्ञा लोपिने, चाले निजमति छन्द: ज्यां त्यां भटकी दुःख ले, जाण्याविण मतिमन्द.।।१९।। बोले ते पाळे नहीं, करे प्रतिज्ञा भङ्गः रौरव दुःखो नरकमां, पामे जीव कुरङ्ग. ॥ २० ॥ चित्त स्थिर जेनुं नहीं, करतो उधां काम; लोक हसे दुःखो लहे, मूर्ख दुःखनुं ठाम. ॥ २१ ॥ मनमां आवे ते करे, पञ्च कहे ते फोक; अवळा प्राणी बापडा, लहे न मुखडां लोक. ॥ २२ ॥ सद्गुरु शिक्षा लोपिने, मूर्ख शिष्य पस्ताय; कोह्या काननी कूतरी, पेठे ठाम न पाय. ॥ २३ ॥ परमप्रभुनी प्राप्तिमां, सद्भक्ति हितकार; ज्ञान ध्यान सद्वर्तना, अनन्त मुख करनार. ॥ २४ ।। जिन वचनामृत पानथी, नासे भव सन्ताप; बुद्धिसागर ज्ञानथी, कर जिनवरनो जाप. ॥ २५ ॥
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