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नव तत्वादिक श्रद्धा ज्ञाने, कुश्रद्धानी फेरवणी; सद्गुरु संगत करतां सहेजे, समकित श्रद्धा होय घणी, ते माटे श्रद्धालु लोको, आदरजो गुरु स्पर्शमणि. ॥८॥ असद्गुरुनी संगत थातां, सुश्रद्धाथी नहीं फरो, सर्वोत्तम सद्गुरु छे नौका, पामी पाणी सहेज तरो; जल्दी खटपट लटपट त्यागी, चेतन हीरो हाथ धरो, ज्ञान क्रिया बेथी छे मुक्ति, जिन वाक्यामृत पान करो.॥९॥ कलिकालमां भक्ति मोटी, देव गुरुनी साचवजो, षड् द्रव्योनुं ज्ञान करीने, मुक्तिपुरी सन्मुख थनो; कलिकालनां कौतुक देखी, धर्म क्रियाने नहीं त्यजो, जगमा सर्वोत्तम जिन दर्शन, अन्तरंग बाहिरंग भजो. ॥१०|| परोपकारे मनटुं धर, जूठ वेण नहि उच्चरवां, धर्म करतां धाड पडे तो, पाछां पगलां नहि भरवां; धनवंता पापि जन देखी, पाप कर्म नहि आचर, पापे जय धर्मे क्षय रभसा, वेण कदा नहि उच्चरवं. ॥ ११ ॥ वात वातमा लडी न पडवू, कपट कळाने परिहरवी, धर्मी जनने स्हाय करीने, सद्भक्ति दीलमां वरवी; परनी निन्दा कदी न करवी, वृद्ध वाक्यने अनुसरवं. मोटा जननुं मानन करवू, विना प्रयोजन नहि फरवं. ॥१२॥ शत्रु मित्रमा समान दृष्टि, धर्म कार्यमां यन करो, ज्ञान ध्यानमा दिवस गाळो, मुक्तिपुरीनो मार्ग खरो; आतम ते परमातम साचो, अनन्त शक्ति प्रगट करो, बुद्धिसागर अवसर पामी, सिद्ध सनातन सत्य वरो. ॥१३॥
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