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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०० वर्ते निजपद शून्यता, चाले छे व्यवहारः ॥ २६ ॥ कोटि प्रयत्ने पामरो, पामे नहि भवपार. धाम धूममां धर्मने, माने मृढ सदीव; धर्म मर्म समज्या विना, क्लेश लहे छे जीव ॥ २५ ॥ मुंड मुंडावे शुं थयुं, थयुं न मनडुं मुंड; मलीन मन वर्ते तदा, जाणो जेवं भूंड. केश लोचथी शुं धयुं, कर्यो न अंतर्लोच; बाह्य शौचथी शुं थयुं, ग्रह्यो न अंतशौच ॥ २७ ॥ वस्त्र त्यागथी शुं थयुं, नन फरे छे ढोर अंतर्मूर्च्छा त्यागतो, त्याग औरको ओर. ॥ २८ ॥ प्रतिदेहमां देव छे, तिरोभावथी जाण; 11 28 11 आविर्भाव जगावना, कर तुं तेनुं ध्यान. अनुभव पच्चिशी रची, इंद्रोडा दिन एक; विचरी विविध भावथी, समजी सत्य विवेक. ||३०|| संवत ओगणीश वासठे, कृष्णपक्ष वैशाखः For Private And Personal Use Only ॥ २९ ॥ सातम दीन शुभ भावधी करतां गुणगण राश. ॥ ३१ ॥ पार्श्वनाथ संखेश्वरा, करजो शासन सहायः बुद्धिसागर प्रेमी, ज्ञाने आतम गाय. ॥ ३२ ॥ कलिकालमहिमा अने कृत्योपदेश. रुचिराचं. आजकालनी केळवणीमां, कुश्रद्धानी भेळवणी, परदेशी लोकोना चाळा, नास्तिक बुद्धि मेळवणी; धर्म वरंधर धर्म गुरुना, वचनोनी ज्यां फेरवणी, स्वच्छंद मतथी छोकरवादी, उद्धत्ताई फेळवणी. ॥१॥
SR No.008537
Book TitleBhajanpad Sangraha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year1908
Total Pages330
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati & Worship
File Size13 MB
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