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कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा, स्तवना पूर्ण रसाळ. ॥ १०७ ॥ फरी चोमासु शांतिथी, विनापुरमा खास; सिहाचल गिरि वंदना, करतां तत्त्व प्रकाश. ॥ १०८ ।।
आत्मस्तुति. अंतर्दृष्टि साध्यता, साधक शुद्ध कथाय; अंत मुखोपयोगता, साधन सत्य सघाय. ॥ १ ॥ उपशम भावे साधना, क्षयोपशमवा जोयः क्षायिक भावे साधना, सत्य चरण अवलोय. ।।२।। गुणस्थानक आरोहवा, समजो सत्य उपाय; अंतर्दृत्ति आत्ममां, सत्य चरण मुखदाय. ॥३॥ क्षयोपशम ज्ञाने सदा, ध्यावो अंतर्देव; सेवा अंतर्देवनी, आपे शिवमुखमेवः मन चंचलता वारीने, ध्यावो अंतर्धर्मः शुद्ध स्वरूपाकारमां, रहेतां नासे कर्म. अंतर्मुख वृत्ति कही, ध्यावो चिन्मय राय; अडग स्थिरोपयोगथी, आनंदाब्धि मुहाय. |॥ ६ ॥ सत्य शांतता त्यां जगे, अचल स्वभावी जेह; शिवमुग्वानुभव लहे, वर्ते जोपण देह. ॥७॥ नैगमनय दृष्टि करी, शुद्ध कर एवंभूत; एवंभूत दृष्टि करी, विशुद्ध नैगम युक्त. ॥८॥ संवहनय दृष्टि करी, समभिष्टता शुद्ध; समभिरूढ दृष्टि करी, शुद्ध रूजुनय बुद्ध. ॥ ९ ॥ रूजुमूत्र दृष्टि करी, शब्दनये आरोह; शब्दनये आरोहीने, आश्रवनो कर रोह. ॥ १० ॥
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