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परमात्ममय ध्यानथी, यातां तत्पद पाय ॥२१॥ आधि उपाधि मिट गइ, प्रगटयो सुख संतोष ॥ अरि मित्र समभाव ज्यां, त्यां क्यां रोषने तोष २२ वीर्योल्लासनी वृद्धिथी, तत्क्षण अनुभव रंग ॥ प्रगट्यो आत्म सरोवरे, चिद्घन ज्यां छे तरंग २३ ज्ञानदर्शन चारित्र पंथ, वहतां शाश्वत शहेर ॥ चिद्घन आत्म स्वरूपमय, वर्ने लीलालहेर २४ रोग शोक उपाधि व्याधि, मोह माया जंजाल॥ तेह अभावे मुक्तिमां, वर्ने मंगल माल ॥२५॥ अनुभव पच्चिशी कही, अर्थनो अति विस्तार ॥ दाख्यो तेमां जाणजो, वासद गाम मझार ॥२६॥ कावीठाना वासी शेठ, रत्नचंद्र हितकार ॥ तेम झवेर भाइ कारणे, रचना कीधी सार ॥२७॥ संवत ओगणीस उपरे, ओगण साठनी शाल ॥ पोशवदि बारस दिने, रचतां मंगल माल ॥२८॥ वांची धारी ग्रंथ ए, समजो आत्म स्वरूप ॥ बुद्धिसागर सुख लही, थावो शिवपुर भूप ॥२९॥
इति श्री शान्तिः ३
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