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गुणस्थानकविचार. १५१ अतिचारे अथवा बार कषायने उदये असंजमपरिणाम फरसे जे पूर्व पर्याय छेदीने अभिनव निर्मल पर्यायनो अंगीकार करवो ते छैदोपस्थापनीय कहीये, अने छेदोपस्थापनीचारित्र भरत ५ तथा ऐरवत ५ ते मध्ये प्रथम चरम तीर्थकरना साधुजीने होवे तथा तीर्थकर तथा गणधरजीना शिष्य नव पूर्वथी उपरांत श्रुतवंत मध्य युवानवयि प्रथम संघयणे अढार मासनो उग्रतप ते अप्रमादी निद्रा रहित नवजणा वनवासी थका जें तप करे ते परिहार विशुद्ध चारित्र कहिजे, दशमे गुणठाणे शुक्लध्यान तथा सूक्ष्म लोभनो उदय छे ते सूक्ष्म संपराय चारित्र कहिजे, तथा सर्वथा कषायनो उदय नथी ते यथाख्यात चारित्र
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