________________
प्रकाशकीय निवेदन
श्रीविजयनेमिसूरीश्वरग्रन्थमालाना ६१ मा रत्न तरीके श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासनना न्यासानुसन्धानसहित बृहवृत्तिनो पंचमअध्याय जिज्ञासु महानुभावो समक्ष मुकता अमो अतीव आनन्द अनुभवीए छोले । श्रीसिद्धहेमच्याकरणनी भव्यता विशिष्टता अने अजोड उपयोगिता तो सर्वविदितज छ। आ अंगे कहेवायोग्य, अमे तृतीय अध्यायना प्रथम पादने आपनी सेवामा रजु करती वखते कही गया छी।
आगळना तमाम अध्यायो सहना उपयोग माटे शीघ्रातिशीघ्र प्रकाशित करवाना अमारा प्रयासो झडपथी चालेज छे । २, ३, अने ४ पाद सहित तृतीय अध्यायन कार्य वाराणसीना सुप्रसिद्ध भार्गव भूषण प्रेसमां चाले छ, चतुर्थ अध्यायनं कार्य मंबइना ख्यातनाम निर्णयसागर प्रेसमां चाले छ; अने पंचम अध्याय के जे आपना करकमलमां आवे छे तेनुं सुन्दर मुद्रण जोधपुरना सुप्रतिष्ठित कुंभट प्रेसमां थयु छ । आ ग्रन्थने झडपथी छापवा बद्दल कुंभट प्रेसना मालिक श्री मखतूरमलजी कुंभट ने अमो हार्दिक धन्यवाद आपीये छी।
प्रस्तुत पंचम अध्यायना शब्दमहार्णवन्यासवें संपूर्ण अनुसन्धान जगद्गुरु-शासनसम्राट्-सुरिचक्रचक्रवर्ती-तपोगच्छाधिपति-विविधतीर्थोद्धारक-प्रभूतभूपप्रतिबोधक-बालब्रह्मचारी-परमाराध्य परमपूज्य आचार्यदेवेश श्रीमद्विजयनेमिसूरीश्वरजी म. श्रीजीना पट्टालंकार व्याकरणवाचस्पति-कविरत्न-शास्त्रविशारदसाधिकसप्तलक्षश्लोकप्रमाणनूतनसंस्कृतसाहित्यसर्जक-अनुपमव्याख्यानसुधावर्ती पूज्यपाद आचार्यदेव श्रीमद्विजय लावण्यसूरीश्वरजी म० श्रीए कर्यु छ। पंचम अध्यायमा व्याकरणशास्त्रनी विशेषताना प्रतिकसमा कृदन्तना अने तेनी अन्तर्गत उणाविना मनोरम्य विषयने अनुसन्धानकार महषिए खूब सुन्दर, रसप्रद शैलीए चर्को छ । एटलुज नहि पण सूक्ष्मातिसूक्ष्म ममने पण सरळताथी चो छ। रचनाकार महर्षिनी प्रत्येक रचनामा अनेकविध ग्रन्थोना चिन्तन, मनन, अने परिशीलमनी साथे प्रकाण्डबुद्धिप्रतिभानी झळक होय छे । आ वात साक्षरगणने सुपरिचितज छ।
___भावि जिज्ञासुओना बोध अने उपकारनी कल्याण कामनाथी पूज्यपाद आचार्यदेवश्री पोताना नादुरुस्त अने नाजुक स्वास्थ्यने गणकार्या सिवाय अनेकविध शासनप्रभावनाना शुभकार्योने सुसम्पन्न करवानी साथे न्यासानुसन्धानना कार्यने जल्दी परिपूर्ण करवा अविरत प्रयत्नशील रहे छे। खरेखर पूज्यपाद आचार्यदेव श्रीजीनी अप्रमत्त ज्ञानदशा सहकोइने भावपूर्वक अभिवादन करवा योग्य छे। आवा महान् बुद्धिवैभवी परमाराध्य आचार्यदेवधीजीना सर्वोपयोगी अने चिरस्थायी साहित्यने प्रकाशित करवानो अमूल्य लाभ अने ज्ञानसेवानी यत्किचित् तक मळी छे तेथी अमो पण अमारी जातने भाग्यशाळी मानीये छी।
परमपूज्य आचार्य देवश्रीजीना सर्वग्रन्थोने साक्षरगणे अने जिज्ञासुमहानुभावोए जेटला आनन्दथी सत्कार्या छे अने भावपूर्वक सन्मान्या छे तेवीज रीते अधिकाधिक उपयोगसाथे आ ग्रन्थने पण सत्कारशे अने सन्मानशे एवी भावपूर्ण श्रद्धासहित विरमिए छीओ।