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समयसार-कलश
[भगवान् श्री कुन्द-कुन्द
[उपजाति] एकस्य कर्ता न तथा परस्य चिति द्वयोविति पक्षपातौ। यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव।। २९-७४।।
[रोला] एक अकर्ता कहे दूसरा कर्ता कहता, किन्तु यह तो उभय नयों का पक्षपात है । पक्षपात से रहित तत्व वेदी जो जन हैं, उनको तो यह जीव सदा चैतन्यरूप है।।७४।।
अर्थ:- जीव कर्ता है ऐसा एक नयका पक्ष है और जीव कर्ता नहीं है ऐसा दूसरे नयका पक्ष है। इस प्रकार चित्स्वरूप जीव के सम्बन्धमें दो नयोंके दो पक्षपात है। जो तत्त्ववेत्ता पक्षपातरहित है उसे निरन्तर चित्स्वरूप जीव चित्स्वरूप ही है ।।२९-७४।।
[ उपजाति] एकस्य भोक्ता न तथा परस्य चिति द्वयोविति पक्षपातौ। यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव।। ३०-७५।।
[रोला] एक अभोक्ता कहे दूसरा भोक्ता कहता, किन्तु यह तो उभय नयों का पक्षपात है । पक्षपात से रहित तत्व वेदी जो जन हैं, उनको तो यह जीव सदा चैतन्यरूप है।।७५।।
___ अर्थ:- जीव भोक्ता है ऐसा एक नयका पक्ष है और जीव भोक्ता नहीं है ऐसा दूसरे नयका पक्ष है; इस प्रकार चित्स्वरूप जीव के सम्बन्धमें दो नयोंके दो पक्षपात है। जो तत्त्ववेत्ता पक्षपातरहित है उसे निरन्तर चित्स्वरूप जीव चित्स्वरूप ही है ।।३०-७५ ।।
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