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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates उनमेंसे लोकोत्तर वन्दनाको कर्म क्षपणका हेतु बतलाया गया है। स्पष्ट है कि लौकिक वंदनामात्र पूण्य बंधका हेतु है। इन तथ्यों पर दृष्टिपात करने से विदित हो ता है कि पूर्वकाल में ऐसी ही लौकिक विधि प्रचलित थी जिसका लोकोत्तर विधिके साथ सुमेल था। इस समय उसमें जो विशेष फेरफार होता है वह भट्टारकीय युग की देन है। लाटीसंहिताकी रचना वैराटनगरके श्री दि. जैन पार्श्वनाथ मंदिर में बैठकर की गई थी। रचनाकाल वि. सं. १६४१ है। इसकी रचना कराने में साहू फामन और उनके वंशका प्रमुख हाथ रहा है। ४। चौथाग्रंथ अध्यात्मकमलमार्तण्ड है। यह भी कविवर की रचना मानी जाती है। इनकी रचना अन्य किसी व्यक्तिके निमित्त से न होकर स्वसंवित्ति को प्रकाशित करने के अभिप्राय से की गई है। यही कारण है कि इसमें कविवर ने न तो किसी व्यक्ति विशेषका उल्लेख किया है और न अपने संबन्धमें ही कुछ लिखा है। इसके सवाध्याय से विदित होता है कि इसकी रचना के काल तक कविवर ने अध्यात्म में पर्याप्त निपुणता प्राप्त कर ली थी। यह इसी से स्पष्ट है कि वें इसके दूसरे अध्याय का प्रारम्भ करते हुए यह स्पष्ट संकेत करते हैं कि पुण्य और पाप का आस्रव ओर बन्ध तत्व में अन्तर्भाव होनेके कारण इन दो तत्वोंका अलगसे विवेचन नहीं किया है। विषय प्रतिपादन की दृष्टिसे जो प्रौढ़ता पंचाध्यायी में दृष्टिगोचर होती है उसकी इसमें एक प्रकार से न्यूनता ही कही जायेगी। आश्चर्य नहीं कि यह ग्रन्थ अध्यात्म प्रवेशकी पूर्णपीठिकाके रूप में लिखा गया हो। अस्तु, ५ से ७ जान पड़ता है कि कविवरने पूर्वोक्त चार ग्रन्थोंके सिवाय तत्वार्थसूत्र और समयसार कलशकी टीकाएं लिखने के बाद पंचाध्यायी की रचना की होगी। समयसार कलश की टीका का परिचय तो हम आगे कराने वाले हैं, किन्तु तत्वार्थसूत्र टीका हमारे देखने में नहीं आई, इसलिये यह कितनी अर्थगर्भ है यह लिखना कठिन है। रहा पंचाध्यायी ग्रंथराज सो इसमें संदेह नहीं कि अपने कालकी संस्कृत रचनाओं में विषय प्रतिपादन और शैली इन दोनों दृष्टियोंसे यह ग्रन्थ सर्वोत्कृष्ट रचना है। इसे तो समाज का दुर्भाग्य ही कहना चाहिये कि कविवरके द्वारा ग्रंथके प्रारम्भमें की गई प्रतिज्ञा के अनुसार पांच अध्यायोंमें पूरा किया जानेवाला यह ग्रन्थराज केवल डेढ़ अध्यायमात्र लिखा जा सका। इसे भगवान कुन्दकुन्द और आचार्य अमृतचन्द्रकी रचनाओंका अविकल दोहन कहना अधिक उप्युक्त है। कविवरने इसमें जिस विषय को स्पर्श किया है उसकी आत्मा को स्वच्छ दर्पण के समान खोलकर रख दिया है। इसमें प्रतिपादित अध्यात्मनयों और सम्यक्त्व की प्ररूपणा में जो अद्भुत विशेषता दृष्टिगोचर होती है उसने ग्रन्थराज की महिमाको अत्यधिक बढ़ा दिया है इसमें संदेह नहीं। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008397
Book TitleSamaysara Kalash
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size3 MB
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