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समयसार - कलश
[ अनुष्टुप ]
घृतकुम्भाभिधानेऽपि कुम्भो घृतमयो न चेत् । जीवो वर्णादिमज्जीवो जल्पनेऽपि न तन्मयः।। ८-४०।।
[ दोहा ]
कहने से घी का घड़ा, घड़ा नघी का होय । कहने से वर्णादिमय जीव न तन्मय होय । ।४० ।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- दृष्टांत कहते हैं- " चेत् कुम्भः घृतमयः न' [ चेत् ] जो ऐसा है कि [ कुम्भ:] घड़ा [ घृतमय: न ] घीका तो नहीं है, मिट्टीका है । " घृतकुम्भामिधाने अपि ' ' [ घृतकुम्भ ] 'घीका घड़ा' [ अभिधाने अपि ] ऐसा कहा जाता है तथापि घड़ा मिट्टीका है । भावार्थ इस प्रकार है
जिस घड़े में घी रखा जाता है उस घड़ेको यद्यपि घीका घड़ा ऐसा कहा जाता है तथापि घड़ा मिट्टीका है, घी भिन्न है तथा ' वर्णादिमज्जीवः जल्पने अपि जीवः तन्मयः न' [ वर्णादिमज्जीवः जल्पने अपि ] यद्यपि शरीर-सुख - दुःख - राग-द्वेषसंयुक्त जीव ऐसा कहा जाता है तथापि [ जीवः] चेतन द्रव्य ऐसा [ तन्मयः न ] जीव तो शरीर नहीं, जीव तो मनुष्य नहीं; जीव चेतनस्वरूप भिन्न है ।
[ भगवान् श्री कुन्दकुन्द -
भावार्थ इस प्रकार है कि आगममें गुणस्थानका स्वरूप कहा है, वहाँ ऐसा कहा है कि देव जीव, मनुष्य जीव, रागी जीव, द्वेषी जीव, इत्यादि बहुत प्रकारसे कहा है सो यह सब कहना व्यवहारमात्रसे है। द्रव्यस्वरूप देखनेपर ऐसा कहना झूठा है। कोई प्रश्न करता है कि जीव कैसा है ? उत्तर - जैसा है वैसा आगे कहते हैं । । ८ -४० ।।
[ अनुष्टुप ]
अनाद्यनन्तमचलं स्वसंवेद्यमबाधितम्।
जीवः स्वयं तु चैतन्यमुच्चैश्चकचकायते ।। ९-४१।।
[ दोहा ] स्वानुभूति में जो प्रगट, अचल अनादि अनन्त। स्वयं जीव चैतन्यमय, जगमगात अत्यन्त ॥४१॥
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खंडान्वय सहित अर्थ:- 'तु जीव: चैतन्यम् स्वयं उच्चैः चकचकायते' [तु] द्रव्यके स्वरूपका विचार करने पर [ जीव: ] आत्मा [ चैतन्यम् ] चैतन्यस्वरूप है, [ स्वयं ] अपनी सामर्थ्य [ उच्चैः] अतिशयरूपसे [ चकचकायते ] अति ही प्रकाशता है । कैसा है चैतन्य ? अनाद्यनन्तम्' ं [ अनादि ] जिसकी आदि नहीं है [ अनन्तम् ] जिसका अंत - विनाश नहीं है, ऐसा है । और कैसा है चैतन्य 'अचलं" नहीं है चलता प्रदेशकंप जिसको, ऐसा है । और कैसा है ? स्वसंवेद्यं अपने द्वारा ही आप जाना जाता है। और कैसा है ? " अबाधितम्' अमिट है जिसका स्वरूप ऐसा है।। ९–४१।।
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