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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार-कलश [भगवान् श्री कुन्द-कुन्द [मालिनी] अयि कथमपि मृत्वा तत्त्वकौतूहली सन् नुभव भव मूर्तेः पार्श्ववर्ती मुहूर्तम्। पृथगथ विलसन्तं स्वं समालोक्य येन त्यजसि झगिति मूर्त्या साकमेकत्वमोहम्।।२३।। [हरिगीत] निजतत्व का कौतूहली अर पड़ोसी बन देह का। हे आत्मन! जैसे बने अनुभव करो निजतत्व का ।। जब भिन्नपर से सुशोभित लख स्वयं को तब शीघ्र ही। तुम छोड़ दोगे देह से एकत्व के इस मोह को ।।२३।। खंडान्वय सहित अर्थ:- 'अयि मूर्तेः पार्श्ववर्ती भव, अथ मुहूर्तं पृथक् अनुभव'' [ अयि ] हे भव्यजीव! [ मूर्ते:] शरीरसे [पार्श्ववर्ती] भिन्नस्वरूप [भव] हो। भावार्थ इस प्रकार है कि अनादिकालसे जीवद्रव्य [ शरीर के साथ ] एक संस्काररूप होकर चला आरहा है, इसलिए जीवको ऐसा कहकर प्रतिबोधित किया जाता है कि भो जीव! ये जितनी शरीरादि पर्याय हैं वे सब पुद्गलकर्मकी है तेरी नहीं। इसलिए इन पर्यायोंसे अपनेको भिन्न जान। [अथ] भिन्न जानकर [मुहूर्तम् ] थोडे ही काल [पृथक् ] शरीरसे भिन्न चेतनद्रव्यरूप [अनुभव ] प्रत्यक्षरूपसे आस्वाद ले। भावार्थ इस प्रकार है कि शरीर तो अचेतन है, विनश्वर है। शरीरसे भिन्न कोई तो पुरुष है ऐसा जानपना- ऐसी प्रतीति मिथ्यादृष्टि जीवके भी होती है पर साध्यसिद्धि तो कुछ नहीं। जब जीवद्रव्यका द्रव्य-गुण-पर्यायस्वरूप प्रत्यक्ष आस्वाद आता है तब सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र है, सकल कर्मक्षयलक्षण मोक्ष भी है। कैसा है अनुभवशील जीव ? 'तत्त्वकौतूहली सन्'' [ तत्त्व] शुद्ध चैतन्यवस्तुका [ कौतूहली सन् ] स्वरूपको देखना चाहता है, ऐसा होता हुआ। और कैसा होकर ? "कथमपि मृत्वा'' [कथमपि] किसी प्रकार - किसी उपायसे [ मृत्वा] मरकरके भी शुद्ध जीवस्वरूपका अनुभव करो। भावार्थ इस प्रकार है कि शुद्ध चैतन्यका अनुभव तो सहजसाध्य है, यत्नसाध्य तो नहीं है पर इतना कहकर अत्यंत उपादेयपनेको दृढ़ किया है। यहाँ पर कोई प्रश्न करता है कि अनुभव तो ज्ञानमात्र है, उससे क्या कुछ कार्यसिद्धि है ? वह भी उपदेश द्वारा कहते हैं- "येन मूर्त्या साकम् एकत्वमोहम् झगिति त्यजसि'' [ येन ] जिस शुद्ध चैतन्यके अनुभव द्वारा [ मूर्त्या साकम् ] द्रव्यकर्मभावकर्म-नोकर्मात्मक समस्त कर्मरूप पर्याय के साथ [ एकत्वमोहम ] एक संस्काररूप-'मैं देव हूँ, मैं मनुष्य हूँ, मैं तिर्यंच हूँ, मैं नारकी हूँ आदि; मैं सखी हँ. मैं दखी हँ आदि; मैं क्रोधी हूँ. मैं मानी हूँ आदि तथा मैं यति हूँ, मैं गृहस्थ हूँ इत्यादिरूप प्रतीति' ऐसा है मोह अर्थात् विपरीतपना, उसको [ झगिति] अनुभवने मात्रपर [त्यजसि] भो जीव! अपनी बुद्धिसे तू ही छोड़ेगा। भावाथै इस प्रकार है कि अनुभव ज्ञानमात्र वस्तु है, एकत्वमोह मिथ्यात्वरूप द्रव्यका विभावपरिणाम है तो भी इनको [अनुभवको और मिथ्यात्वके मिटनेको] आपसमें कारण-कार्यपना Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008397
Book TitleSamaysara Kalash
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size3 MB
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